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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
गमकभावः इति; तहि 'यस्मिन्निश्चीयमाने यन्न निश्चीयते' इत्यादि पूर्वोक्तमेव दूषणं पुनरापतति । अपि च प्रयत्नानन्तरीयकत्वमेवाऽनित्यत्व नियतत्वेन निश्चितमिति वदता स एवाऽस्मदभ्युपगतो नियमलक्षणसम्बन्धोऽभ्युपगतो भवति ।
नाऽपि तदुत्पत्तिलक्षणः सम्बन्धो गम्यगमकभावनिबन्धनम्, तथाऽभ्युपगमे वक्तृत्वादेरप्यसर्वज्ञत्वं प्रति गमकत्वं स्यात् । अथ सर्वज्ञत्वे वक्तृत्वादेबर्बाधकप्रमाणाभावात सर्वज्ञत्वादिभ्यो वक्तृत्वादेयावृत्तिः संदिग्धेति संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वान्नायं गमकस्तहि धमस्याप्यनग्नौ बाधकप्रमाणाभावात ततो व्यावृत्तिः संदिग्धेति संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादग्निं प्रति गमकत्वं न स्यात् ।
[ तादात्म्य से गम्यगमकभाव नहीं बन सकता] यह ज्ञातव्य है कि दो वस्तु के बीच तादात्म्य होने से गम्य-गमक भाव माना जाय तो जैसे प्रयत्नजन्यत्व को अनित्यत्व का गमक माना जाता है उसी प्रकार दोनों के बीच तादात्म्य होने पर अनित्यत्व भी प्रयत्नजन्यत्व का गमक हो जाने की आपत्ति होगी। बौद्धमत में दो ही सम्बन्ध से गम्य-गमक भाव माना जाता है, तादात्म्य और तदुत्पत्ति। प्रयत्नानन्तरीयकत्व और अनित्यत्व के बीच तदुत्पत्ति यानी कारण-कार्य भाव तो है नहीं, केवल तादात्म्य है, इसलिये उपरोक्त आपत्ति अवश्य होगी। यदि कहा जाय कि-'तादात्म्य होने पर भी प्रयत्नानन्तरीयकत्व ही अनित्यत्व के नियतरूप से निश्चित है, अनित्यत्व प्रयत्नानन्तरीयकत्व के नियतरूप से निश्चित नहीं है, इसलिए अनित्यत्व प्रयत्नानन्तरीयकत्व का गमक होने की आपत्ति नहीं है, क्योंकि गम्य-गमकभाव एक का
तरूप से किये गये निश्चय पर अवलम्बित है।'-तो इस कथन से तादात्म्य गम्यगमकभावनियामक सम्बन्धरूप से सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि यहाँ भेद आपत्ति रूप दूषण आ पड़ता है, क्योंकि पहले कह आये हैं कि जिसका निश्चय होने पर जो अनिश्चित रहता है वह उससे भिन्न होता है । दूसरी बात यह है कि 'प्रयत्नानन्तरीकत्व अनित्यत्व के नियतरूप से निश्चित है यह जो आपने कहा उसमें 'नियतरूप से इसका अर्थ है 'नियमविशिष्ट रूप से' । अत: हमने जो पहले अविनाभाव रूप नियम ही गम्य-गमक भाव का नियामक संबंध सिद्ध होने का कहा था उसी का आपने भी स्वीकार कर लिया।
[ तदुत्पत्तिसंबंध से गम्यगमकभाव नहीं बन सकता) गम्य-गमक भाव को तदुत्पत्तिसंबन्धमूलक भी नहीं मान सकते क्योंकि ऐसा मानने पर वक्तृत्वादि धर्म असर्वज्ञता का गमक होने की आपत्ति होगी, क्योंकि असर्वज्ञपुरुष से वचनवाक्यों की उत्पत्ति देखी जाती है । यदि यह शंका की जाय कि- 'वक्तृत्व धर्म सर्वज्ञपुरुष में होने में कोई बाधक युक्ति या प्रमाण नहीं है और सर्वज्ञ असर्वज्ञता का विपक्ष है, इसलिये विपक्ष भूत सर्वज्ञ में वक्तृत्व धर्म का अभाव है या नहीं, इस संदेह को अवकाश है । तात्पर्य, हेतु भूत वक्तृत्व धर्म की विपक्षभूत सर्वज्ञ से व्यावृत्ति संदिग्ध होने से संदिग्धव्यभिचार दोष वाला हेतु हो गया इसलिये वह असर्वज्ञता का गमक नहीं हो सकेगा'-तो ऐसी शंका के विरुद्ध यह आपत्ति आयेगी कि धूम हेतु भी अग्नि का गमक नहीं होगा, क्योंकि अग्नि के विपक्षभूत अर्थात् जहाँ अग्नि होने का निश्चित हो ऐसी सभी गृह आदि में धूम का अभाव ही हो यह निश्चय करने की सामग्री न होने से उसका भी संदेह हो सकता है क्योंकि वहाँ भी धूम की सत्ता होने में कोई बाधक प्रमाण या युक्ति नहीं है। इसलिये अग्नि के प्रति धूम की गमकता भी विलुप्त हो जायगी।
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