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अज्झयणं-३, उद्देसो
[५५४] तं बहु-भव-संचिय तुंग-पाव - कम्मट्ठ- रासि दह लद्धं मानुस जम्मं विवेगमादीहिं संजुत्तं ।। [५५५] जो न कुणइ अत्तहियं सुयानुसारेण आसवनिरोहं छ-तिग्ग-सीलंग-सहस्स धारणेणं तु अपमत्ते ।। [५५६] सो दीहर-अव्वोच्छिन्न घोर- दुक्खग्गि-दाव-पज्जलिओ उव्वेविय संतत्तो अनंतहुत्तो सुबहुकालं ।।
[५५७] दुग्गंधा मेज्झ - चिलीण खार- पित्तोज्झ सिंभ-पडहच्छे | वस-जलुस-पूय-दुद्दिन चिलिच्चिल्ले रुहिर - चिक्खल्ले ।। [५५८] कढ-कढ-कढंत चल चल चलस्स टल - टल - टलस्स रज्झतो संपिंडियंगमंगो जोणी-जोणी वसे गब्भे ।
एक्केक्क-गब्भ-वासेसु जंतियंगो पुनरवि भमेज्जा | [५५९] ता संतावुव्वेग जम्म-जरा-मरण गब्भ-वासाई संसारिय- दुक्खाणं विचित्त- रूवाण भीएणं ।। [५६०] भावत्थवानुभावं असेस - भव-भय-खयंकरं नाउं तत्थेव महंता भुज्जमेणं दढमच्चंतं पयइयव्वं ।। [५६१] इय विज्जाहर - किन्नर - नरेण ससुरा sसुरेण वि जगेण । संथुव्वंते दुविहत्थवेहिं ते तिहुक्कीसे ।। [५६२] गोयमा ! धम्मतित्थंकरे जिने अरहंते त्ति
अह तारिसे वि इड्ढी-पवित्थरे सयल - तिहुयणाउलिए । साहीणे जग-बंधू मनसा वि न जे खणं लुद्धे ।। [५६३] तेसिं परमीसरियं रूव- सिरी- वण्ण-बल- पमाणं च
सामत्थं जस-कित्ती सुर- लोग - चुए जहेह अवयरिए || [५६४] जह काऊण ऽन्न-भवे उग्गतवं देवलोगमनुपत्ते ।
जह जाय-कम्म-विनिओग कारियाओ दिसा कुमारीओ ।। [ ५७६८] सव्वं निय कत्तव्वं निव्वत्तंती जहेव भत्ती
बत्तीस-सुर-वरिंदा गरुय-पमोएण सव्व- रिद्धीए || [५६९] रोमंच-कंचु पुलइय भत्तिब्भर मोइय- सगत्ते
मन्नंते सकयत्थं जम्मं अम्हाण मेरुगिरि - सिहरे ।।
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तित्थयर-नाम-कम्मं जह बद्धं एगाइ - वीस - थामेसु ।। [५६५] जह सम्मत्तं पत्तं सामण्णाराहणा य अन्न-भवे
जह य तिसला उ सिद्धत्थ-धरिणी चोद्दस - महा - सुमिण - लभं || [५६६] जह सुरहि-गंध-पक्खेवगब्भ वसहीए असुहमवहरणं जह सुराहो अंगुट्ठपव्वं नमियं महंत भत्तीए ।। [५६७ ] अमयाहारं भत्तीए देइ संथुणइ जाव य पसूओ
[दीपरत्नसागर संशोधितः ]
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[३९-महानिसीहं]