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दुषम-दुषमा के प्रारम्भ में ही प्रचण्ड आँधियाँ चलेंगी और प्रलयकारी मेघ बरसेंगे जिनसे भारत-भूमि के मनुष्यों और पशुओं का अधिकांश नाश हो जायेगा। अत्यल्पसंख्यक मनुष्य और पशु गंगा एवं सिन्धु के तटों पर पहाड़ी गुफाओं में रहेंगे और माँस मत्स्यों के आहार से जीवन निर्वाह करेंगे।
अवसर्पिणी काल के दुषम-दुषमा विभाग के बाद उत्सर्पिणी का इसी नाम का प्रथम आरा लगेगा और इक्कीस हजार वर्ष तक भारत की वही दशा रहेगी जो छठे आरे में थी। ___उत्सर्पिणी का प्रथम आरा समाप्त होकर दूसरा लगेगा तब फिर शुभ समय का आरम्भ होगा। पहले पुष्कर-संवर्तक मेघ बरसेगा जिससे भूमि का ताप दूर होगा। फिर क्षीर-मेघ बरसेगा जिससे धान्य की उत्पत्ति होगी। तीसरा घृत-मेघ बरसकर पदार्थों में चिकनाहट उत्पन्न करेगा। चौथा अमृत-मेघ बरसेगा तब नाना प्रकार के रस-वीर्य वाली औषधियाँ उत्पन्न होंगी और अन्त में रस-मेघ बरसकर पृथ्वी आदि में रस की उत्पत्ति करेगा। ये पाँचों ही मेघ सात-सात दिन तक निरन्तर बरसेंगे जिससे दुग्धप्राय बनी हुई इस भारत-भूमि पर हरियाली, वृक्ष, लता, औषधि आदि प्रकट होंगे। भूमि की इस समृद्धि को देखकर मनुष्य गुफा-बिलों से बाहर आकर मैदानों में बसेंगे और माँसाहार को छोड़कर वनस्पतिभोजी बनेंगे। प्रतिदिन उनमें रूप, रंग, बुद्धि, आयुष्य आदि की वृद्धि होगी और उत्सर्पिणी के दुषमा समय के अन्त तक वे पर्याप्त सभ्य बन जायेंगे। वे अपना सामाजिक संगठन करेंगे। ग्राम-नगर बसाकर रहेंगे। घोडे, हाथी, बैल आदि का संग्रह करना सीखेंगे। पढ़ना, लिखना, शिल्पकला आदि का प्रचार होगा। अग्नि के प्रकट होने पर भोजन पकाना आदि विज्ञान प्रचलित होंगे। दुषमा के बाद दुषम-सुषमा नामक तृतीय आरक आरम्भ होगा जबकि एक-एक करके फिर चौबीस तीर्थंकर होंगे और तीर्थ-प्रवर्तन कर भारतवर्ष में धर्म का प्रचार करेंगे। ___ उत्सर्पिणी के दुषम-सुषमा के बाद क्रमशः सुषम-दुषमा, सुषमा और सुषम-सुषमा नामक चौथा, पाँचवाँ और छठा ये तीन आरे होंगे। इनमें सुषम-दुषमा के आदि भाग में फिर धर्म-कर्म का विच्छेद हो जायेगा। तब जीवों के बड़े-बड़े शरीर और बड़े-बड़े आयुष्य होंगे। वे वनों में रहेंगे और दिव्य वनस्पतियों से अपना जीवन निर्वाह करेंगे।
फिर अवसर्पिणी काल लगेगा और प्रत्येक वस्तु का ह्रास होने लगेगा।
इस एकार अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी इस संसार में व्यतीत हो गई और होंगी। जिन जीवों ने संसार-प्रवाह से निकलकर वास्तविक धर्म का आराधन किया, उन्हीं ने इस काल-चक्र को पारकर स्व-स्वरूप को प्राप्त किया और करेंगे।"
काल-चक्र का सविस्तार स्वरूप निरूपण करके भगवान ने संसार के दुःखों और भ्रमणों की भयंकरता दिखाई जिसे सुनकर अनेक भव्य आत्माओं ने संसार से विरक्त होकर निम्रन्थ-धर्म की शरण ली। अंतिम वर्षावास व पुण्यपाल राजा के स्वप्न व भविष्य-कथन
प्रभु महावीर राजगृह से पावा पधारे। पावा में उस समय राजा हस्तीपाल राज्य करता था। उसकी रजुक सभा में प्रभु महावीर विराजे। प्रभु महावीर का यह अंतिम वर्षावास था। प्रभु महावीर पावापुरी के लोगों को उपदेश दे रहे थे। ___ एक दिन की बात है कि राजा पुण्यपाल ने भगवान महावीर से प्रार्थना की-“प्रभु ! मैंने आज रात विचित्र प्रकार के हाथी, बन्दर, क्षीरतरु, कौआ, सिंह, पद्म, बीज और कुम्भ यह आठ अशुभ स्वप्न देखे हैं; मुझे यह चिंता सता रही है कि कहीं इसका फल अमंगलदायक तो नहीं है ?''
प्रभु महावीर ने प्रथम स्वप्न का उत्तर देते हुए कहा-"भविष्य में विवेकशील श्रमणोपासक भी क्षणिक सुख के कारण हाथी की तरह रहेंगे। वह कष्ट की घडी में संयम ग्रहण करने का विचार नहीं करेंगे।
द्वितीय स्वप्न बन्दर इस बात का प्रतीक है कि भविष्य में बड़े आचार्य भी बन्दर की तरह चंचल वृत्ति के, अल्प पराक्रमी व्रत-पालन में प्रमादी होंगे। वे विचारशून्य, विवेकशून्य होंगे।
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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