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________________ वार्तालाप के मध्य आनंद ने प्रश्न किया-“क्या भगवन् ! घर में रहते हुऐ एवं धर्म का पालन करते हुए श्रावक को अवधिज्ञान हो सकता है ?" गौतम--"हाँ आनन्द ! श्रमणोपासक को अवधिज्ञान हो सकता है।" आनन्द-"भगवन् ! यदि ऐसा हो सकता है तो मुझे भी अवधिज्ञान हुआ है जिसके प्रभाव से मैं पूर्व-दक्षिण और पश्चिम में लवण समुद्र में पाँच सौ योजन, उत्तर में क्षप्रहिम-वहर्षधर ऊपर सौधर्मकल्प और नीचे लाल लुप नामक नरकावास तपरूपी पदार्थों को देखता-जानता हूँ।'' गौतम ने आनन्द के विशाल अवधिज्ञान का वर्णन सुना तो आश्चर्य हुआ। गणधर गौतम ने कहा-“हाँ आनन्द ! श्रमणोपासक को अवधिज्ञान तो होता है पर इतना विस्तृत नहीं जितना आप कह रहे हो। तुम्हारा कथन भ्रान्तियुक्त है, यह सत्य प्रतीत नहीं होता। इसलिए तुम्हें अपनी इस भूल के लिये दण्ड प्रायश्चित्त करना चाहिये।" आनंद ने निर्भय होकर पूछा-“भगवन् ! क्या जिनशासन में सत्य, तथ्य एवं सद्भूत कथन के लिये प्रायश्चित्त दिया जाता है?" गौतम-“आनंद ! ऐसा नहीं है, जैनधर्म में ऐसा कोई विधान नहीं कि सत्य बोलने के लिए दण्ड प्रायश्चित्त लेना है।" आनंद-“भगवन् ! तो फिर आप मुझे सत्य कथन के लिए प्रायश्चित्त के लिए क्यों कह रहे हैं? आप मिथ्या वचन के लिये प्रायश्चित्त लें।" आनंद के अवधिज्ञान के बारे में सुनकर असमंजस में पड़ गये। उन्हें अपनी बात पर शंका हुई, वह सीधे ही प्रभु महावीर के पास पहुंचे। भगवान को वन्दना करने के पश्चात् गणधर गौतम ने आनंद से हुई बातचीत का ब्यौरा दिया। प्रभु महावीर ने कहा- “गौतम ! आनन्द का कथन पूर्ण सत्य है, तुम्हारा कथन मिथ्या है। तुम अभी वापस जाओ और आनंद से क्षमा याचना करो।" गणधर गौतम ने प्रभु महावीर के वचनों को स्वीकार करते हुए आनन्द से क्षमा माँगी। इस घटना ने गणधर गौतम को महानतम बना दिया। गणधर गौतम जो प्रभु महावीर के प्रथम शिष्य व १४,००० साधुओं में प्रमुख थे, कितने विचित्र थे, इस बात से उनकी सहजता, सरलता झलकती है। छत्तीसवाँ वर्ष : किरातराज की दीक्षा वर्षावास समाप्त होते ही प्रभु महावीर वैशाली की ओर पधारे, फिर वह कोशल भूमि की ओर पधारे। धर्म उपदेश देते हुए वह साकेत नगरी में पधारे। साकेत कोशल देश का प्रसिद्ध नगर और प्रमुख व्यापार का केन्द्र था। यहाँ जिनदेव नाम का श्रावक रहता था। वह एक बार भ्रमण करता हुआ कोटिवर्ष पहुँचा। वहाँ पर मल्लेधों का राज्य था। जिनदेव ने किरातराज को बहुमूल्य रत्न भेंट किये। उनकी रत्नों की चमक से राजा विस्मित हुआ। उसने जिनदेव से पूछा-“तुम यह रत्न कहाँ से लाये हो ? मैंने तो इतनी चमक वाले रत्न पहली बार देखे हैं ?" जिनदेव-“राजन् ! इससे भी बढ़िया रत्न हमारे देश में होते हैं।" किरातराज-'मेरी हार्दिक इच्छा है कि मैं तुम्हारे साथ जाकर ऐसे रत्न प्राप्त करूँ ? परन्तु मुझे तुम्हारे शक्तिशाली राजा का भय है।" २३२ सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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