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________________ भगवान ने कालोदायी को लक्ष्य करके निर्ग्रन्थ प्रवचन का उपदेश दिया जिसे सुनकर वह आपके पास निर्ग्रन्थ मार्ग में दीक्षित हो गया। कालोदायी अनगार क्रमशः निर्ग्रन्थ प्रवचन के एकादशाङ्ग सूत्रों का अध्ययन कर प्रवचन के रहस्य के ज्ञाता हुए।७८ राजगृह नगर से ईशान दिशा में धनवानों के सैकड़ों प्रासादों से सुशोभित नालन्दा नामक एक समृद्ध उपनगर था। यहाँ 'लेव' नामक एक धनाढ्य गृहस्थ रहता था जो निर्ग्रन्थ प्रवचन का अनुयायी और जैन श्रमणों का परम भक्त था। नालंदा के उत्तर-पूर्व दिशा भाग में उक्त लेव श्रमणोपासक की 'शेषद्रविका' नाम की उदकशाला और उसके पास ही 'हस्तियाम' नामक उद्यान था। एक समय भगवान महावीर हस्तियाम में ठहरे हुए थे कि शेषद्रविका के पास इन्द्रभूति को मैतार्य गोत्रीय पेढालपुत्र उदक नामक एक पापित्य निर्ग्रन्थ मिले और गौतम को संबोधन कर बोले- “गौतम ! तुमसे कुछ पूछना है। आयुष्मन् ! मेरे प्रश्नों का उपपत्तिपूर्वक उत्तर दीजियेगा।" गौतम-“पूछिये।" उदक-“आयुष्मन् गौतम ! तुम्हारे प्रवचन का उपदेश करने वाले कुमारपुत्रीय श्रमण अपने पास नियम लेने को तैयार हुए श्रमणोपासक को इस प्रकार प्रत्याख्यान कराते हैं-'राजाज्ञा आदि कारण से किसी गृहस्थ अथवा चोर के बाँधने-छोड़ने के अतिरिक्त मैं त्रसजीवों की हिंसा नहीं करूंगा।' आर्य ! इस प्रकार का प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है। जो ऐसा प्रत्याख्यान कराते हैं वे दुष्प्रत्याख्यान कराते हैं। इस प्रकार का प्रत्याख्यान करने और कराने वाले अपनी प्रतिज्ञा में अतिचार लगाते हैं क्योंकि प्राणी संसारी है। स्थावर मरकर नसरूप में उत्पन्न होते हैं और त्रस मरकर स्थावररूप में भी उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार जो जीव 'त्रसरूप में 'अघात्य' थे वे ही स्थावररूप में उत्पन्न होने के बाद 'घात्य' हो जाते हैं। इस कारण प्रत्याख्यान इस प्रकार सविशेषण करना और कराना चाहिये-'राजाज्ञा आदि कारण से किसी गृहस्थ अथवा चोर के बाँधने-छोड़ने के अतिरिक्त मैं त्रसभूत जीवों की हिंसा नहीं करूँगा।' इस प्रकार 'भूत' इस विशेषण के सामर्थ्य से उक्त दोषापत्ति टल जाती है। इस पर भी जो क्रोध अथवा लोभ से दूसरों को निर्विशेषण प्रत्याख्यान कराते हैं वह 'न्याय' नहीं है। क्यों गौतम ! मेरी यह बात तुमको ठीक ऊँचती है कि नहीं?" गौतम-“आयुष्मन् उदक ! तुम्हारी बात मेरे दिल में ठीक नहीं बैठती। मेरी राय में ऐसा करने वाले श्रमण-ब्राह्मण यथार्थ भाषा नहीं बोलते, वे अनुतापिनी भाषा बोलते हैं और श्रमण तथा ब्राह्मणों के ऊपर झूठा आरोप लगाते हैं। यही नहीं, बल्कि प्राणी-विशेष की हिंसा को छोड़ने वालों को भी वे दोषी ठहराते हैं क्योंकि प्राणी संसारी हैं, वे त्रस मिटकर स्थावर होते हैं और स्थावर मिटकर त्रस। फिर वे त्रसकाय से निकलकर स्थावर में जाते हैं और स्थावरकाय से त्रस में। संसारी जीवों की यह स्थिति है। इस वास्ते जब वे त्रसकाय में उत्पन्न होते हैं तब त्रस कहलाते हैं और तभी त्रस हिंसा का जिसने प्रत्याख्यान किया है उसके लिए वे 'अघात्य' होते हैं। इसलिये प्रत्याख्यान में 'भूत' विशेषण जोड़ने की जरूरत नहीं है।" उदक-“आयुष्मन् गौतम ! तुम ‘वस' का अर्थ क्या करते हो? 'त्रसप्राण सो त्रस' यह अथवा दूसरा ?' गौतम-"आयुष्मन् उदक ! जिन जीवों को तुम ‘त्रसभूतप्राण' कहते हो उन्हीं को हम ‘त्रसप्राण' कहते हैं और जिन्हें हम ‘त्रसप्राण' कहते हैं उन्हीं को तुम ‘नसभूतप्राण' कहते हो। ये दोनों तुल्यार्थक हैं, परन्तु आर्य उदक ! तुम्हारे विचार में इन दो में 'त्रसभूतप्राण त्रस' यह व्युत्पत्ति निर्दोष है और ‘त्रसप्राण त्रस' यह सदोष। आयुष्मन् ! जिनमें वास्तविक भेद नहीं है ऐसे दो वाक्यों में से एक का खण्डन करना और दूसरे का मण्डन यह क्या न्याय है? सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र – २२७ २२७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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