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चौंतीसवाँ वर्ष
हेमन्त ऋतु राजगृह से महावीर ने बाहर के प्रदेश में विहार किया और अनेक ग्राम-नगरों में निर्ग्रन्थ प्रवचन का प्रचार किया । ग्रीष्मकाल में भगवान फिर राजगृह पधारे और गुणशील चैत्य में वास किया।
अनगार इन्द्रभूति गौतम एक दिन राजगृह से भिक्षा लेकर भगवान के पास गुणशील चैत्य में जा रहे थे, उस समय गुणशील वैत्य के मार्ग में कालोदायी, शैलोदायी प्रभृति अन्यतीर्थिक महावीर प्ररूपित पञ्चास्तिकायों की चर्चा कर रहे थे । गौतम को देखकर वे एक-दूसरे को संबोधन कर बोले- "देवानुप्रियो ! हम धर्मास्तिकायादि के विषय में ही चर्चा कर रहे हैं। देखो ये श्रमण ज्ञातपुत्र के शिष्य गौतम भी आ गये। चलिये इस विषय में हम गौतम को पूछें।" यह कहकर कालोदायी, शैलोदायी, शैवालोदायी प्रमुख अन्यतीर्थिक गौतम के पास पहुँचे और उन्हें ठहराकर बोले - "हे गौतम ! तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र धर्मास्तिकाय आदि पाँच अस्तिकायों की प्ररूपणा करते हैं । इनमें से चार को वे 'अजीवकाय' कहते हैं और एक को 'जीवकाय' तथा चार को 'अरूपिकाय' कहते हैं और एक को 'रूपिकाय' । इस विषय में क्या समझना चाहिये, गौतम ? इस अस्तिकाय संबन्धी प्ररूपणा का रहस्य क्या है, गौतम ?"
गौतम - “देवानुप्रियो ! हम 'अस्तित्त्व' में नास्तित्त्व नहीं कहते और 'नास्तित्त्व' में अस्तित्त्व नहीं कहते। हम अस्ति को अस्ति और नास्ति को नास्ति कहते हैं । हे देवानुप्रियो ! इस विषय में तुम स्वयं विचार करो जिससे कि इसका रहस्य समझ सको ।"
अन्यतीर्थिकों के प्रश्न का रहस्यपूर्ण उत्तर देकर गौतम महावीर के पास चले गये, पर कालोदायी गौतम के उत्तर का रहस्य नहीं समझ पाया। परिणामस्वरूप वह स्वयं गौतम के पीछे-पीछे भगवान के पास पहुँचा । महावीर उस समय सभा में धर्मदेशना कर रहे थे। प्रसंग आते ही उन्होंने कालोदायी को संबोधन करके कहा- "कालोदायिन् ! तुम्हारी मण्डली में मेरे पञ्चास्तिकाय निरूपण की चर्चा चली ?"
कालोदायी - "जी हाँ, आप पञ्चास्तिकाय की प्ररूपणा करते हैं यह बात हमने जब से सुनी है तब से प्रसंगवश इस पर चर्चा हुआ करती है।"
महावीर - 'कालोदायिन् ! यह बात सत्य है कि मैं पञ्चास्तिकाय की प्ररूपणा करता हूँ। यह भी सत्य है कि चार अस्तिकायों को 'अजीवकाय' और एक को 'जीवकाय' तथा चार को 'अरूपिकाय' और एक को 'रूपिकाय' मानता हूँ।"
कालोदायी- “भगवन् ! आपके माने हुए इन धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय अथवा जीवास्तिकाय पर कोई सो, बैठ या खड़ा रह सकता है ?"
महावीर - "यह नहीं हो सकता कालोदायिन् ! इन धर्मास्तिकायादि अरूपिकाय पर सोना-बैठना या चलना-फिरना नहीं हो सकता। ये सब क्रियाएँ केवल एक पुद्गलास्तिकाय पर, जोकि रूपी और अजीवकाय है, हो सकती हैं, अन्यत्र कहीं नहीं ।"
कालोदायी - "भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय में जीवों के दुष्ट-विपाक पापकर्म किये जाते हैं ? "
महावीर - "नहीं कालोदायिन् ! ऐसा नहीं होता।"
कालोदायी - "भगवन् ! इस जीवास्तिकाय में दुष्ट - विपाक पापकर्म किये जाते हैं ?"
महावीर -“हाँ, कालोदायिन् ! किसी भी प्रकार के कर्म जीवास्तिकाय में ही किये जाते हैं ।”
पञ्चास्तिकाय विषयक प्रश्नों का सविस्तार उत्तर देकर भगवान ने कालोदायी के संशय को दूर किया । फलस्वरूप कालोदायी का चित्त निर्ग्रन्थ प्रवचन सुनने को उत्कण्ठित हुआ। भगवान को वन्दन कर वह बोला- “भगवन् ! मैं विशेष प्रकार से आपका प्रवचन सुनना चाहता हूँ ।"
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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