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________________ महावीर-"हाँ, सामायिक, पौषधादि व्रत में स्थित श्रमणोपासक का भाण्ड ‘अभाण्ड' हो जाता है।" गौतम-“भगवन् ! जब व्रत दशा में उसका वह भाण्ड 'अभाण्ड' हो गया तो उस दशा में चोरी हुए उस भाण्ड का करने के बाद श्रमणोपासक के तलाश करने पर वह अपने भाण्ड की तलाश करता है' यह कैसे कहा जायेगा? जब उसका वह भाण्ड ही नहीं रहा तो उसकी तलाश करने का उसे क्या अधिकार है ?" ___महावीर-“गौतम ! व्रत दशा में उसकी भावना यह होती है कि यह सोना, रूपा, कांस्य, दूष्य या मणि-रलादि कोई पदार्थ मेरा नहीं है। इस प्रकार उस समय उन पदार्थों से वह अपना संबन्ध छोड़ देता है-उनका उपयोग नहीं करता। पर उन पदार्थों पर से उसका ममत्वभाव नहीं छूटता और ममत्वभाव के न छूटने से वह पदार्थ पराया नहीं होता, उसी का रहता है।" गौतम-“भगवन् ! सामायिक व्रत में स्थित श्रमणोपासक की भार्या से कोई संगम करे तो क्या कहा जायेगा--भार्या से संगम? या अभार्या से?' महावीर-"श्रमणोपासक की भार्या से संगम करता है यही कहना चाहिये।" गौतम-“भगवन् ! शीलव्रत, गुणव्रत और पौषधोपवास से भार्या 'अभार्या' हो सकती है ?" महावीर-“हाँ, गौतम ! व्रत दशा में श्रमणोपासक की यह भावना होती है कि माता, पिता, भाई, बहन, भार्या, पुत्र, पुत्री और पुत्रवधू कोई मेरा नहीं है। यह भावना होते हुये भी उनसे उसके प्रेम-बन्धनों का विच्छेद नहीं होता। इसलिये ‘भार्या-संगम' ही कहा जायेगा ‘अभार्या-संगम' नहीं।६९ श्रमणोपासक व आजीवकोपासक श्रमणोपासक गतकाल में किए हुए प्राणातिपात का ४९ प्रकार से प्रतिक्रमण करता है, वर्तमानकालीन प्राणातिपात का ४९ प्रकार से नियमन करता है और अनागत काल के प्राणातिपात का ४९ प्रकार से निषेध करता है। इस प्रकार श्रमणोपासक के स्थूल प्राणातिपात-विरमणव्रत के कुल १४७ भेद होते हैं। इसी प्रकार स्थल मषावाद-विरमण. स्थल अदत्तादान-विरमण, स्थल मैथन-विरमण और स्थल परिग्रह-विरमण के भी प्रत्येक के १४७-१४७ भेद होते हैं जिनमें से अमुक व्रत का अमुक भेद पालन करने वाला भी श्रमणोपासक होता है। इस प्रकार विविध भंग से व्रत पालने वाले श्रमणोपासक होते हैं, आजीवकोपासक नहीं होते। ___ आजीवक मत के शास्त्रों का अर्थ ही यह है कि सचित्त पदार्थों का भोजन करना-सर्व प्राणियों का छेदन-भेदन और विनाश कर उनका भोजन करना। ___ आजीवक मत में ये बारह प्रसिद्ध आजीवकोपासक कहे गये हैं-ताल, तालपलंब, उव्विह, संविह, अवविह, उदय, नामुदय, नमोदय, अणुवालय, संखवालय, अयंपुल और कायरय। ये सभी आजीवकोपासक अरिहंत को देव मानने वाले और माता-पिता की सेवा करने वाले थे। ये गूलर, बड़, बेर, सतर (शहतूत) और पीपल इन पाँच जाति के फलों और प्याज, लहसुन आदि कन्दमूल को नहीं खाते थे। ये त्रस जीवों की रक्षा करते हुए ऐसे बैलों से अपनी जीविका चलाते जो न बधिया होते और न नाक बींधे हए।" जब आजीवकोपासक भी इस प्रकार निर्दोषरीत्या जीविका चलाते थे तो श्रमणोपासक का तो कहना ही क्या? उन्हें तो पन्द्रह ही कर्मादानों का त्याग करना चाहिये। इस वर्ष राजगृह के विपुल पर्वत पर अनेक अनगारों ने अनशन किया। तीसवाँ वर्ष वर्षा चातुर्मास्य भगवान ने राजगृह में किया। चातुर्मास्य की समाप्ति होने पर भगवान ने राजगृह से चम्पा की ओर विहार कर चम्पा के पश्चिम में 'पृष्ठचम्पा' नामक उपनगर में ठहरे। पृष्ठचम्पा के राजा शाल और उसके छोटे भाई युवराज २१६ सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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