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गौतम-"राग, द्वेष और स्नेह-बन्धन ये तीव्र और भयंकर पाश हैं। इन सबका यथा न्याय उच्छेद करके आचार के अनुसार विचरता हूँ।"
केशी-“जीव के हृदय में एक बेल उगती है, बढ़ती है और विषैले फलों से फलती है। गौतम ! उस बेल को तुमने कैसे उखाड़ दिया?" __ गौतम-"उस संपूर्ण बेल को पहले काटा, फिर उसका मूल उखाड़ा और ऐसा करके मैं विषैले फलों के भोग से बच गया हूँ।"
केशी-“गौतम ! वह बेल कौन-सी है?"
गौतम-“हे महामुनि ! वह बेल है 'भव-तृष्णा'। यह स्वयं भयंकर है और भयंकर फल देती है। इसे मूल से उखाड़कर मैं यथा न्याय विचरता हूँ।"
केशी-"शरीर में जाज्वल्यमान घोर अग्नि रहती है जो शरीर को जलाती रहती है। गौतम ! उस देहस्थ अग्नि को तुमने किस प्रकार शान्त किया?'
गौतम-"महामेघ से बरसे हुए उत्तम जल को लेकर उस अग्नि में छिड़का करता हूँ जिससे मुझे वह नहीं जलाती।" केशी-“गौतम ! वह अग्नि कौन-सी है?'
गौतम-“कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) विविध प्रकार की ‘अग्नि' है और श्रुतज्ञान, शील और तप 'जल'। इस श्रुत शीलादि की जलधारा से छिड़की हुई कषाय-अग्नि शान्त हो जाती है। वह मुझे जला नहीं सकती।'
केशी-“गौतम ! जिस पर तुम चढ़े हो वह घोड़ा बड़ा साहसिक, भयंकर और दुष्ट है। वह बड़ा तेज दौड़ता है। वह घोडा तम्हें उन्मार्ग पर नहीं ले जाता?
गौतम-“दौड़ते हुए उस घोड़े को मैं श्रुतज्ञान की लगाम से पकड़े रखता हूँ जिससे वह मार्ग को नहीं छोड़ता।" केशी-“गौतम ! वह घोड़ा कौन-सा है ?"
गौतम-" 'मन' । यह साहसिक, भयंकर और अत्यन्त तेज दौड़ने वाला दुष्ट घोड़ा है जिसे मैं धर्मशिक्षा से वश में किये रहता हूँ।"
केशी-“गौतम ! इस जगत् में अनेक कुमार्ग हैं जिन पर चढ़कर जीव भटकते हुए मर जाते हैं, परन्तु गौतम ! तुम मार्ग में कैसे भूले नहीं पड़ते?"
गौतम-“कुमारश्रमण ! जो मार्ग पर चलते हैं और जो उन्मार्गगामी हैं उन सबको मैं जानता हूँ। यही कारण है कि मैं मार्ग नहीं भूलता।"
केशी-“वह मार्ग कौन-सा है?"
गौतम-“जिनोपदिष्ट 'प्रवचन' सन्मार्ग है और इसके विपरीत 'कुप्रवचन' उन्मार्ग। जो जिन-प्रवचन के अनुसार चलते हैं वे मार्गगामी हैं और कुप्रवचन पर चलने वाले उन्मार्गगामी।" ।
केशी-“मुनि गौतम ! जल-प्रवाह के वेग में बहते हुए प्राणियों की शरण और आधार क्या है ?'
गौतम-“जल के बीच एक महाद्वीप है जिसका विस्तार अतिमहान् है जहाँ जल के महावेग की गति नहीं होती, वही शरण है।"
केशी-“गौतम ! वह द्वीप कौन-सा है ?" गौतम-“जरा-मरण के महावेग में बहते हुए प्राणियों के लिये शरण, आधार और अवलंबनदायक 'धर्म' ही द्वीप
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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