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केशी ने गौतम का उचित आदर किया। कुश-आसन आदि देकर बैठने का इशारा किया। गौतम बैठे। दोनों स्थविर सूर्य और चन्द्र की तरह शोभायमान होने लगे।
तीर्थंकर पार्श्वनाथ और वर्धमान के श्रमणों का यह सम्मेलन एक अभूतपूर्व घटना थी। इसे देखने और संवाद सुनने के लिये अनेक अन्यतीर्थिक साधु और हजारों गृहस्थ लोग वहाँ एकत्र हुए।
केशी ने कहा-“महाभाग गौतम ! आपसे कुछ पूछु ?' गौतम-“पूज्य कुमार श्रमण ! आपको जो कुछ पूछना हो, हर्ष से पूछ।'
केशी-“महानुभाव गौतम ! महामुनि पार्श्वनाथ ने चातुर्याम धर्म का उपदेश दिया और भगवान वर्धमान ने पञ्चशिक्षिक धर्म का। इस मतभेद का क्या कारण है ? समान मुक्ति-मार्ग के साधकों के धर्ममार्ग में इस प्रकार की विभिन्नता क्यों ? गौतम ! इस मतभेद को देखकर आपको शंका और अश्रद्धा नहीं उत्पन्न होती?'
गौतम-“पूज्य कुमारश्रमण ! सर्वत्र धर्म-तत्त्व का निर्णय बुद्धि से होता है। इसलिए जिस समय में जैसी बुद्धि वाले मनुष्य हों उस समय में उसी प्रकार की बुद्धि के अनुकूल धर्म का उपदेश करना योग्य है।
प्रथम तीर्थंकर के समय में मनुष्य सरल परन्तु जड़ बुद्धि वाले थे। उनके लिये आचार मार्ग का शुद्ध रखना कठिन था। अन्तिम तीर्थंकर के समय में प्रायः कुटिल और जड़ बुद्धि वाले जीवों की अधिकता रहती है। उनके लिये आचार-पालन कठिन है। इस कारण प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों में पाञ्चमहाव्रतिक धर्म का उपदेश दिया, परन्तु मध्यवर्ती बाईस तीर्थंवरों के समय में जीव सरल और चतर होते थे। वे थोडे में बहत समझ लेते और आचार क पाल सकते थे। इसी कारण बाईस तीर्थंकरों ने चातुर्याम धर्म का उपदेश दिया।' ___ केशी-“गौतम ! तुम्हारी बुद्धि को धन्यवाद ! मेरा यह संशय दूर हो गया। अब मेरी दूसरी शंकाओं को सुनोभगवान वर्धमान ने अचेलक धर्म कहा और महायशस्वी पार्श्वनाथ ने सवस्त्र धर्म का उपदेश दिया। एक ही कार्य में प्रवृत्त दो पुरुषों के उपदेश में यह भेद कैसा? क्यों गौतम ! इस प्रकार साधु-वेश में भिन्नता देखकर तुम्हारे हृदय में संशय उत्पन्न नहीं होता?"
गौतम-"पूज्य कुमारश्रमण ! धर्म की साधना ज्ञान के साथ संबंध रखती है, बाह्य वेश के साथ नहीं। बाह्य वेश पहचान और संयम-निर्वाह का कारणमात्र है। मोक्ष-प्राप्ति ज्ञान, दर्शन और चारित्र के स्वीकार से ही होती है।"
केशी-“गौतम ! तुम हजारों शत्रुओं के बीच में रहते हो और शत्रु तुम पर हमला भी करते हैं फिर भी तुम उन्हें कैसे जीत लेते हो?" __ गौतम-“कुमारश्रमण ! पहले मैं अपने एक शत्रु को जीतता हूँ और तब पाँच शत्रुओं को सहज जीत लेता हूँ। पाँच को जीतकर दस को और दस को जीतने के बाद हजारों को आसानी से जीत लेता हूँ।"
केशी-“गौतम ! वे शत्रु कौन हैं ?'
गौतम-“हे मुनि ! 'बेबस' आत्मा ही अपना शत्रु है जिसके जीतने से क्रोध, मान, माया, लोभ नामक कषाय-शत्रु जीत लिए जाते हैं और इस तरह इन पाँच के जीत लेने से श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, जिह्वा और स्पर्शात्मक पाँच इन्द्रियरूप शत्रु जीते जाते हैं। इन दस शत्रुओं को यथा न्याय जीतकर मैं सुख से विचरता हूँ।"
केशी-“गौतम ! इस लोक में बहुसंख्यक लोग पाशों से बँधे हुए हैं, तो तुम इस प्रकार स्वतंत्र होकर कैसे फिरते हो?"
गौतम-“हे मुनि ! मैंने उपाय से उन पाशों को काट दिया है और उनका सर्वथा नाश कर पाश-मुक्त होकर फिरता हूँ। केशी-“वे पाश कौन हैं ?"
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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