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जमालि का यह तर्क कई साधुओं ने ठीक समझा। तब कई स्थविरों ने इसका विरोध भी किया। उन्होंने कहा"भगवान महावीर का 'करेमाणे कडे' यह कथन निश्चयनय की अपेक्षा से सत्य है। निश्चयनय क्रियाकाल और निष्ठाकाल को अभिन्न मानता है। इसके मत से कोई भी क्रिया अपने समय में कुछ भी कार्य करके ही निवृत्त होती है। तात्पर्य इसका यह है कि यदि क्रियाकाल में कार्य न होगा तो उसकी निवृत्ति के बाद वह किस कारण से होगा? इसलिए निश्चयनय का यह सिद्धान्त तर्कसंगत है और इसी निश्चयात्मक नय को लक्ष्य में रखकर भगवान का ‘करेमाणे कडे' यह कथन हुआ है जो तार्किक दृष्टि से बिलकुल ठीक है। दूसरी भी अनेक युक्तियों से स्थविरों ने जमालि को समझाया पर वह अपने हठ पर अड़ा रहा। परिणामस्वरूप बहुतेरे समझदार स्थविर श्रमण उसको छोड़कर भगवान महावीर के पास चले आए।
स्वस्थ होने पर जमालि ने श्रावस्ती से विहार कर दिया, पर उसने जो नया तर्क स्थापित किया था जिसकी चर्चा हर जगह करता रहता।
एक समय भगवान महावीर चम्पानगरी के पूर्णभद्र चैत्य में ठहरे हुए थे। जमालि भगवान के निवास-स्थान पर आया और उनसे कुछ दूर खड़ा होकर बोला-"देवानुप्रिय ! आपके बहुतेरे शिष्य जिस प्रकार छद्मस्थ-विहार से विचरे हैं वैसा आप मेरे संबंध में न समझें। मैं केवली-विहार से विचर रहा हूँ।"
जमालि का उक्त आत्म-श्लाघात्मक भाषण सुनकर महावीर के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति उसे संबोधन कर बोले“जमालि ! केवलज्ञान, केवलदर्शन को तूने क्या समझ रक्खा है ? केवलज्ञान और केवलदर्शन वह ज्योति है जो लोक और अलोक तक अपना प्रकाश फैलाती है, जिसका सर्वव्यापक प्रकाश नदी, समुद्र और गगनभेदी पर्वतमालाओं से भी स्खलित नहीं होता, जिस प्रकाश के आगे अंधेरी गुफायें और तमस् क्षेत्र भी करामलकवत् प्रकाशित होते हैं। महानुभाव जमालि ! जिसमें इस दिव्य ज्योति का प्रादुर्भाव होता है वह आत्मा छिपी नहीं रहती। तू केवली है या नहीं इस संबंध में अधिक चर्चा करना निरर्थक समझता हूँ। सिर्फ दो प्रश्न पूछता हूँ इनका उत्तर दे-(१) लोक शाश्वत है या अशाश्वत? और (२) जीव शाश्वत है या अशाश्वत ?'
इन्द्रभूति गौतम के उक्त प्रश्नों का जमालि ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। इस पर भगवान महावीर ने कहा- "जमालि ! मेरे बहुतेरे ऐसे शिष्य हैं जो छद्मस्थ होते हुए भी इन प्रश्नों के यथार्थ उत्तर देने में समर्थ हैं, तथापि वे केवली होने का दावा नहीं करते। देवानुप्रिय ! केवलज्ञान कोई ऐसी वस्तु नहीं है कि जिसका अस्तित्त्व बताने के लिये केवली को अपने मुख से घोषणा करनी पड़े।" . “जमालि ! लोक 'शाश्वत' है, क्योंकि यह अनन्तकाल पहले भी था, अब है और भविष्य में सदाकाल रहेगा।'
अन्य अपेक्षा से लोक 'अशाश्वत' भी है। कालस्वरूप से वह उत्सर्पिणी मिटकर अवसर्पिणी बनता है और अवसर्पिणी मिटकर उत्सर्पिणी। इसी प्रकार अन्य जो लोकात्मक द्रव्य हैं उनमें अथवा उनके अवयवों में पर्याय परिवर्तन (आकार परावर्तन) होता ही रहता है। इस वास्ते लोक को 'अशाश्वत' भी कह सकते हैं।
इसी तरह जीव भी शाश्वत है और अशाश्वत भी। शाश्वत इसलिये कि उसका अस्तित्त्व त्रिकालवर्ती है और अशाश्वत इसलिये कि पर्यायरूप से वह सदाकाल एक-सा नहीं रहता। कभी वह नारकरूप धारण करता है तो कभी तिर्यक् बनता है, कभी वह मनुष्य बनता है और कभी देव। इस प्रकार अनेक पर्यायों के उत्पाद और व्यय की अपेक्षा से जीव 'अशाश्वत' है।"
जमालि को पूछे गये गौतम के प्रश्नों का स्पष्टीकरण करके भगवान ने बहत समझाया पर उसने अपना कदाग्रह नहीं छोड़ा। वह चला गया और दुराग्रहवश अनेक मिथ्या बातों से लोगों को बहकाता और अपने मतवाद में मिलाता हुआ विचरता रहा।
जमालि के ५०० साधुओं में से कतिपय साधु और प्रियदर्शना प्रमुख १,००० साध्वियाँ भी जमालि के पंथ में मिल गई थीं।
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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