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सिंह- "भगवन् ! बहुत समय से आपकी तबियत अच्छी नहीं रहती इससे और गोशालक की बात के स्मरण से मेरा चित्त उचट गया।"
महावीर-“वत्स ! इस विषय में तुम्हें कुछ भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये। मैं अभी साढ़े पंद्रह वर्ष तक सुखपूर्वक इस भूमण्डल पर विचरूँगा।"
सिंह-“भगवन् ! आपका वचन सत्य हो। हम यही चाहते हैं, परन्तु भगवन् ! आपका शरीर प्रतिदिन क्षीण होता जाता है यह बड़े दुःख की बात है। क्या इस बीमारी को हटाने का कोई उपाय नहीं ?" ___ महावीर-“आर्य ! तेरी यही इच्छा है तो तू मेंढिय गाँव में रेवती गाथापतिनी के यहाँ जा। उसके घर कुम्हड़े और बीजोरे से बनी हुई दो औषधियाँ तैयार हैं। इनमें पहली जो हमारे लिये बनाई गई है, उसकी जरूरत नहीं। दूसरी जो रेवती ने अन्य प्रयोजनवश बनाई है वह इस रोग-निवृत्ति के लिये उपयुक्त है, उसे ले आ।"
भगवान की आज्ञा पाकर सिंह बहुत प्रसन्न हुए। भगवान को वन्दन कर वे मेंढिक ग्राम में रेवती के घर पहुंचे। मुनि को आते देखकर रेवती सात-आठ कदम आगे गई और सविनय वन्दन कर बोली- “पूज्य ! किस निमित्त आना हुआ? कहिये, क्या आज्ञा है?"
सिंह ने कहा- “गाथापतिनी ! तुम्हारे यहाँ जो दो औषधियाँ हैं, जिनमें एक भगवान महावीर के लिये बनाई है उसकी आवश्यकता नहीं है। जो तुमने अन्य उद्देश्य से बीजोरे से औषधि तैयार की है उसकी आवश्यकता है। उसके लिये मैं आया हूँ।" __ आश्चर्यचकित होकर रेवती बोली- “मुनि ! तुम्हें किस ज्ञानी या तपस्वी ने मेरे इस गुप्त कार्य का भेद कहा? मेरे यहाँ अमुक औषधियाँ हैं और वे अमुक-अमुक उद्देश्य से बनाई गई हैं, यह रहस्य तुमने किसके कहने से जाना?'' ___ सिंह ने उत्तर दिया-“श्राविके ! यह रहस्य मैं भगवान महावीर के कहने से जानता हूँ। भगवान ने ही इसके लिये मुझे यहाँ भेजा है।' ___अनगार सिंह की बात से रेवती को बड़ी प्रसन्नता हुई। वह अपने रसोईघर में गई और बीजोरा-पाक लाकर मुनि के पात्र में रख दिया। इस शुभ दान और शुभ भाव से रेवती का मनुष्य-जन्म सफल हो गया। उसने शुभाध्यवसाय से देवगति का आयुष्य बाँधा।
रेवती के घर से लाये हुए औषधमिश्र आहार के सेवन से भगवान के पित्त-ज्वर और रक्तातिसार की पीड़ा बन्द हो गई। धीरे-धीरे उनका शरीर पहले की तरह तेजस्वी होकर चमकने लगा। ___ भगवान महावीर की रोग-निवृत्ति से सबको आनन्द हुआ। साधु-साध्वियाँ और श्रावक-श्राविकाएँ ही नहीं, स्वर्ग के देव तक भगवान की नीरोगता से परम संतुष्ट हुए।५६ जमालि का विद्रोह प्रभू
वीर की आज्ञा के बिना स्वतंत्र होकर विचरता हआ जमालि एक समय श्रावस्ती गया और तिन्दकोद्यान में ठहरा। उस समय जमालि पित्त-ज्वर से पीडित था। साध उसके लिये बिस्तर बिछा रहे थे। जमालि ने पूछा-"संथारा हो गया?" ___ साधुओं ने कहा- “हो गया।' इस पर जमालि सोने के लिये उठा, पर संथारा अभी तक पूरा नहीं हुआ था। निर्बलता के कारण जमालि को खड़ा रहना कठिन हो गया था। उसने झुंझलाकर कहा- 'करेमाणे कडे' (किया जाने लगा सो किया) ऐसा सिद्धान्त है, पर मैं देख रहा हूँ कि 'करेमाणे कडे' का कोई मतलब नहीं। कोई भी कार्य जब पूरा हो जाता है, तभी कार्य-साधक हो सकता है अतः उसी अवस्था में 'कडे' (किया) कहना चाहिये।
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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