________________
मदिरा के नशे और दाह-ज्वर की पीड़ा से विकल गोशालक अयंपुल को उत्तर देता हुआ इस प्रकार असंबद्ध प्रलाप कर रहा था तो भी श्रद्धालु अयंपुल पर उसका कुछ भी विपरीत प्रभाव नहीं हुआ। वह अपने धर्माचार्य के उत्तर से संतुष्ट होकर तथा अन्य भी कतिपय प्रश्न पूछकर उनके उत्तरों से आनन्दित होकर अपने घर गया। गोशालक की अन्तिम अवस्था ___ गोशालक की शक्ति प्रतिक्षण क्षीण हो रही थी इससे, और 'तू स्वयं पित्त-ज्वर की पीड़ा से सात दिन के भीतर छद्मस्थावस्था में मृत्यु को प्राप्त होगा' इस महावीर की भविष्यवाणी के स्मरण से, गोशालक को निश्चय हो गया कि अब उसकी जीवन-लीला समाप्त होने को है। उसने अपने शिष्यों को पास बुलाकर कहा-"भिक्षुओ ! मेरे प्राण-त्याग के बाद मेरे इस शरीर को सुगंधित जल से नहलाना, सुगन्धित काषाय-वस्त्र से पोंछना और गोशीर्ष चन्दन के रस से विलेपन करना। फिर इसे श्वेत वस्त्र से ढककर हजार पुरुषों से उठाने योग्य पालकी में रखकर श्रावस्ती के मुख्यमुख्य सब चौक बाजारों में फिराना और ऊँचे स्वर से उद्घोषित करना कि इस अवसर्पिणी काल के अन्तिम जिन, कर्म खपाकर मुक्त हो गये।"
गोशालक की उक्त आज्ञा को आजीवक स्थविरों ने विनय के साथ सिर पर चढ़ाया। मंखलिपुत्र गोशालक द्वारा अपनी भूल का अहसास
गोशालक की बीमारी का सातवाँ दिन था। उसका शरीर काफी कमजोर हो गया था पर विचार-शक्ति तब तक लुप्त नहीं हुई थी। वह सोता था पर उसके हृदय में जीवन के भले-बुरे प्रसंगों की स्मृति चक्कर काट रही थी। अपना मंखजीवन, महावीर के पीछे पड़कर उनका शिष्य होना, कई बार उसके प्रति बताया हुआ दयाभाव इत्यादि बातें उसके हृदय में ताजी हो रही थीं। साथ ही अपने मुख से की गई महावीर की बुराइयाँ क्रोधवश की हुई सर्वानुभूति और सुनक्षत्र मुनि की हत्या और महावीर पर तेजोलेश्या छोड़ना इत्यादि कृतघ्नतासूचक प्रवृत्तियाँ भी स्मृति-पट पर ताजी होकर उसके चित्त को आकुल कर रही थीं। पहले केवल शरीर में ही जलन थी पर अब तो उसका मन भी पश्चात्ताप की आग में जलने लगा। क्षा
। क्षणभर उसने नीरव और निश्चेष्ट होकर हृदयमन्थन किया, फिर अपने शिष्यों को पास बुलाकर कहा-“भिक्षुओ ! मैं तुम्हें एक कार्य की सूचना देना चाहता हूँ, क्या तुम उस पर अमल करोगे ?'
स्थविर-“अवश्य, आपकी बातों पर अमल करना हमारा सर्वप्रथम कर्त्तव्य है।"
मंखलिपुत्र गोशालक-“हे आर्य ! मेरी आज्ञा मानने में तुमने कभी आनाकानी नहीं की, फिर भी मेरे विश्वास के लिए शपथपूर्वक कहो कि मेरा कहना मानोगे।"
स्थविर-“हम शपथबद्ध होकर कहते हैं कि आपकी आज्ञा का अक्षरशः पालन करेंगे।" गोशालक-"भिक्षुओ ! मैं बड़ा पापी हूँ। मैंने तुम्हें ठगा है। मैंने संसार को भी ठगा है। मैं जिन न होते हुए भी जिन और सर्वज्ञ के नाम से पुजाता रहा हूँ, यह मेरा दंभ था। मैं श्रमणघातक तथा अपने धर्माचार्य की अपकीर्ति करने वाला हूँ। अब मैं मृत्यु के समीप हूँ, कुछ क्षणों में मर जाऊँगा। अब मेरे मरने के बाद तुम्हारा जो कर्त्तव्य है उसे सुनो-जब मैं मर जाऊँ तो मेरे शव के बाँए पाँव में मूंज की रस्सी बाँधकर मुख में तीन बार थूकना, फिर उसे खींचते हुए श्रावस्ती के सब चौक, बाजारों में फिराना और साथ-साथ उच्च स्वर से उद्घोषित करना-'यह मंखलि गोशालक मर गया ! जिन न होने पर भी जिन होने का ढोंग करने वाला, श्रमणघातक, गुरुद्रोही गोशालक मर गया।'
भिक्षुओ ! यही मेरा अन्तिम आदेश है जिसके पालन के लिये तुम शपथबद्ध हुए हो। इसका पालन करना। मेरी आत्म-शान्ति के लिये इस पर अमल करना।'
पश्चात्ताप की आग में अशुभ कर्मों को जलाकर गोशालक शुद्ध हो गया। सम्यक्त्व की प्राप्ति के साथ देह छोड़कर वह अच्युत देवलोक में देवपद को प्राप्त हुआ।
| २०४
-
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org