________________
आर्य अयंपुल, जल के विषय में भगवान का कथन यह है कि भिक्षु के काम में आने योग्य चार तो पेय जल होते हैं और चार अपेय।
पेय जल ये हैं-(१) गोपृष्ठज, (२) हस्तमर्दित, (३) आतपतप्त, और (४) शिलाप्रभ्रष्ट । (१) गौ के पीठ का स्पर्श करके गिरा हुआ जल ‘गोपृष्ठज'। (२) मिट्टी आदि पदार्थों से लिप्त हाथों से बिलोड़ा हुआ जल 'हस्तमर्दित'। (३) सूर्य और अग्नि के ताप से तपा हुआ जल 'आतपतप्त'। (४) पत्थर, शिला के ऊपर से जोर से गिरा हुआ जल 'शिलाप्रभ्रष्ट' कहलाता है।
पिये न जा सकें, पर किसी अंश में जल का काम दें वैसे चार अपेय जल इस प्रकार कहे हैं-(१) स्थाल जल. (२) त्वचा जल, (३) फली जल, और (४) शुद्ध जल।
(१) जल से भीगी खस की टट्टी और जलार्द्र घट बगैरह पदार्थ जिनका शीतल स्पर्श दाह की शान्ति करता है वह 'स्थाल जल' कहलाता है।
(२) कच्चे आम, बेर बगैरह जिनको चूसकर शीतलता प्राप्त की जाती है वह 'त्वचा जल' कहलाता है। (३) मूंग, उड़द बगैरह की कच्ची फली को मुख में चबाकर जो शीतलता प्राप्त की जाती है उसको ‘फली जल' कहते
(४) कोई मनुष्य छह मास तक शुद्ध खाद्य वस्तु का सेवन करे। इस बीच दो मास जमीन पर, दो मास काठ पर और दो मास कुश की पथारी पर सोवे तब छठे महीने की आखिरी रात में पूर्णभद्र और मणिभद्र नामक दो महर्द्धिक देव वहाँ प्रकट होते हैं और अपने जल भीगे शीतल हाथ से साधक का स्पर्श करते हैं, यदि व्यक्ति उस शीतल स्पर्श का अनुमोदन करता है तो उसे आशीविष लब्धि प्राप्त होती है अर्थात् उसकी दाढ़ में साँप के विष से भी अधिक उग्र विष प्रकट होता है
और जो उन स्पर्शक देवों का अनुमोदन नहीं करता उसके शरीर में अग्निकाय की उत्पत्ति होती है। उस अग्नि से अपने शरीर को जलाकर वह उसी भव में सब दुःखों का अन्त करके संसार से मुक्त हो जाता है। उक्त देव के जल भीगे हाथ का शीतल स्पर्श ही 'शुद्ध जल' कहलाता है।
अयंपुल ! अपने धर्माचार्य ने उपर्युक्त आठ चरम, चार पेय जलों और चार अपेय जलों की प्ररूपणा की है। इस वास्ते वे जो नाच, गान, पान, अञ्जलिकर्म और शरीर पर मृत्तिका जल सींचते हैं वह सब ठीक है। ये कार्य अन्तिम तीर्थंकर के अवश्य कर्त्तव्य हैं। इनमें कुछ भी अनुचित नहीं। आर्य अयंपुल ! खुशी से अपने धर्माचार्य के पास जाइये और प्रश्न पूछकर अपनी शंका की निवृत्ति कीजिए। __ आजीवक भिक्षुओं ने अयंपुल के मन का समाधान कर उसे गोशालक की तरफ भेजा और उसके वहाँ पहुँचने के पहले ही दूसरे रास्ते से अंदर जाकर गोशालक को उन्होंने सावधान रहने और अमुक प्रश्न का उत्तर देने का इशारा कर दिया।
अयंपुल गोशालक के पास अंदर गया और तीन प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन-नमस्कार करके उचित स्थान पर बैठ गया। वह अभी प्रश्न पूछ ही नहीं पाया था कि गोशालक ने उसकी शंका को प्रकट करते हुए कहा-"अयंपुल ! आज पिछली रात को कुटुम्ब-चिन्ता करते हुए तुझे हल्ला के संस्थान के विषय में शंका उत्पन्न हुई और उसका समाधान करने के लिये तू यहाँ आया। क्यों यह ठीक है ?'' __ अयंपुल ने हाथ जोड़कर कहा-“जी हाँ, मेरे अभी यहाँ आने का यही प्रयोजन है।" ___ “परन्तु यह आम की गुठली नहीं, उसकी छाल है क्या कहा-हल्ला का संस्थान कैसा होता है ? हल्ला का संस्थान बाँस के मूल-जैसा होता है। बीन बजा अरे वीरका ! बीन बजा !"
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
___
२०३
२०३
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org