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प्रभु महावीर ने आनंद को समझाते हुए कहा-“वह अपने तप-तेज के एक ही प्रहार से किसी को भी भस्म कर सकता है। पर अरिहत भगवान को नहीं। उसमें जितना अधिक तप-तेज है अनगार क्षमा से उस क्रोध का निग्रह करने में समर्थ है। अनगार के तप-तेज से स्थविर का तप-तेज श्रेष्ठ है और उस (स्थविर) के तप-तेज से अनन्त गुणा तपतेज अरिहंत परमात्मा का है। क्योंकि मुनि व अरिहंत में क्षमा गुण है इसलिये इन्हें जला नहीं सकता। हाँ, कुछ परिताप जरूर दे सकता है।
इसलिये तुम जाओ और गौतम इन्द्रभूति आदि श्रमण निर्ग्रथों को सूचित कर दो कि गोशालक इधर आ रहा है। कोई भी श्रमण उसकी द्वेषपूर्ण बातों से क्रोधित न हो, न ही उसे उसकी बात का उत्तर दे।" गोशालक का आगमन
आनन्द मुनि ने प्रभु महावीर का सारा संदेश गणधर गौतम को सुनाया। सभी मुनि सावधान हो गये। गोशालक अपने संघ सहित कोष्टक चैत्य में पहुँचा और उसने कहा-“आयुष्मान काश्यप ! मंखलिपुत्र जो कभी आपका शिष्य था, वह कथन तो आज ठीक है। पर आपको ज्ञात नहीं कि तुम्हारा वह शिष्य मरकर देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हो चुका है। मैं मंखिलपुत्र गोशालक से भिन्न कोण्डियायन गोत्रीय उदायी हूँ। गोशालक का शरीर मैंने इसलिए धारण किया है कि वह परीषह सहने में सक्षम है। यह मेरा सातवाँ शरीरान्तर प्रवेश है। हमारे सिद्धांत के अनुसार जो आज दिन तक मोक्ष गये हैं, जाते हैं, जायेंगे, वे सभी चौरासी लाख महाकल्प के उपरान्त सात देव भव, सात संयुक्त निकाय, सात सन्निगम और सात प्रवृत्त परिहार कर, पाँच लाख साठ हजार छह सौ तीन कर्मभेदों का अनुक्रम से क्षय कर मोक्ष गये हैं और सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए हैं।" । __ और भी सुनो। कुमार अवस्था में मेरे मन में प्रव्रज्या ग्रहण कर ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने की इच्छा हुई। मैंने प्रव्रज्या ग्रहण की।
(१) मैंने निम्न सात प्रवृत्त परिहार किये। मेरा प्रथम शरीरान्तर राजगृह के बाहर मंडी कुक्षी चैत्य में उदायन कोण्डियायन का शरीर त्यागकर ऐणयक के शरीर में २२ वर्ष तक रहा।
(२) मेरा दूसरा शरीरान्तर प्रवेश उद्दण्डपुर के बाहर चन्द्रावतरण चैत्य में ऐणयक का शरीर त्यागने के पश्चात् मल्लराम के रूप में हुआ। इस शरीर में मैं २१ वर्ष तक रहा।
(३) फिर उस शरीर को त्यागकर मैं चम्पानगरी के बाहर मण्डिक के शरीर में यहाँ २० वर्ष रहा।
(४) फिर मैनें वाराणसी के बाहर काम महावन चैत्य में रोहक के शरीर के चतुर्थ शरीरान्तर प्रवेश किया। यहाँ मैं १९ वर्ष तक रहा।
(५) आलभिआ नगरी के बाहर प्राप्त काल चैत्य में भारद्वाज के शरीर में १८ वर्ष तक रहा। (६) वैशाली के कुण्डियायन चैत्य में गौतमपुत्र अर्जुन के शरीर में १७ वर्ष तक रहा। (७) फिर श्रावस्ती नगरी में हालाहला कुम्हारिन के कुम्भकारायण में मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर को ग्रहण किया
सो आप मंखलिपुत्र गोशालक की बात करते हैं, वह आपका शिष्य था। मैं वह नहीं। अब मैं दूसरा मंखलिपुत्र गोशालक हूँ।
गोशालक के व्यर्थ प्रलाप को सुनकर प्रभु महावीर ने स्पष्ट किया
"जैसे कोई चोर ग्रामवासियों से डरा हुआ भागता है उस भागते चोर को खड्डा, गुफा, दुर्ग या विषम स्थान न मिलने पर वह ऊन, सन, कपास या तृण में अपने को छिपाने का प्रयास करता है। पर वह इन वस्तुओं से छिप नहीं
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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