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________________ हमने यहाँ उन ग्रन्थों का वर्णन किया है जिन्हें हमने पढ़ा या जिनके विषय में हमें जानकारी प्राप्त हुई है और उनकी सहायता से कुछ शब्द लिख पाये। प्रभु महावीर पर अनगिनत ग्रन्थ अभी अप्रकाशित अवस्था में भण्डारों की शोभा बने हुए हैं। __यह बड़ी विडम्बना रही है कि जिस युग पुरुष ने संसार को इतना कुछ दिया, उस युग पुरुष का नाम किसी भी वैदिक ग्रन्थ में नहीं पाया जाता। दूसरी ओर प्रथम तीर्थंकर का वर्णन वेद, उपनिषद्, पुराण साहित्य में भरा पड़ा है। इसका एक ही कारण हमारी समझ में आता है कि प्रभु महावीर का युग यज्ञों, वेद, ब्राह्मण, पशुबलि, दास-प्रथा, छुआछूत का युग था। प्रभु महावीर ने अपनी अहिंसक क्रान्ति से इन रुढ़ियों को जड़ से उखाड़ फेंका। उन्होंने वेद और ब्राह्मण दोनों का प्रभुत्व अस्वीकार कर ब्राह्मणों द्वारा बनाई वर्ण व्यवस्था को जड़ से समाप्त कर दिया। धर्म के नाम पर यज्ञों में पशुबलि को कुकृत्य बताया। जाति का आधार कर्म को माना, जन्म को नहीं। स्त्री और दासों की मण्डियाँ बन्द करवाईं। उन्हें अपने धर्म-संघ में बराबर का स्थान दिया। भगवान महावीर और भगवान बुद्ध के कारण ब्राह्मणवाद ५०० वर्ष तक पनप न सका। क्योंकि प्रभु महावीर के समय के राजा भी इन्हीं धर्मों को मानने वाले थे। प्रभु महावीर और वेद प्रभु महावीर ने वेदों को ईश्वरीय ज्ञान नहीं माना। ईश्वर को जगत् का कर्ता नहीं माना। उन्होंने तो मुक्त आत्मा को परमात्मा माना। ब्राह्मण समाज इस विरोध को सहन न कर सका। उन्होंने जैनों को नास्तिकों की संज्ञा में रखते हुए कहा- "नास्तिको वेद निन्दक।" वेद का निन्दक नास्तिक है। स्मृतिकार ने नास्तिक की परिभाषा ही बदल डाली। प्रभु महावीर को ब्राह्मण धर्म ने न पहले स्थान दिया न अब दिया है। हाँ, समय आया, जब जैनों से सत्ता छिन गई तो एक ब्राह्मण सेनापति पुष्य मित्र ने जैनधर्म पर इतने जुल्म किये कि उन्हें बिहार, उड़ीसा, बंगाल से पलायन कर राजस्थान, गुजरात व दक्षिण भारत आना पड़ा। जैनों के पवित्र स्थल समाप्त कर दिये। उड़ीसा के राजा खारवेल जैनधर्म को सारे भारत तक फैलाया था। वहाँ भी यह इतिहास की बात बन गया। दक्षिण भारत में जैनों पर अत्याचार गुप्त काल शान्ति से बीता। चाहे उस समय के राजा ब्राह्मण धर्म को मानने वाले थे फिर भी दूसरे को सन्मान देते थे। फिर कुमारिल भट्ट, शंकराचार्य, मण्डन मिश्र ने राजाओं को प्रेरित कर जैनधर्म पर अनेक प्रतिबंध लगवाये। दक्षिण भारत में वैष्णव धर्म के समय शैवों ने यह क्रम चालू रखा। दक्षिण भारत के राज्यों में जैनों की संख्या करोड़ों में थी। इस संदर्भ में गजराज राठौड कृत 'जैनधर्म में मौलिक इतिहास' भाग ४ क पृष्ठ ४५ पर लिखा है- "तिरुअप्पर और ज्ञान सम्बन्धर इन दोनों के समकालीन शैव सन्तों ने एकेश्वरवाद के सिद्धान्त का प्रचार किया।" ____“तिरुअप्पर पहले जैन साधु थे फिर शैव बने। पूर्व व्यापक प्रभाव के कारण उन्हें राज्याश्रय मिला। तिरु ज्ञान सम्बन्धर को मधुरापति पाण्डव राज सुन्दर पाण्डव ने समर्थन दिया। उसका दूसरा नाम कुब्ज पाण्डव था उसने जैनधर्म का परित्याग कर दिया। इसी समय तिरुअप्पर नामक, जो पहले धर्मसेन नामक जैन आचार्य था, वह शैवों से चर्चा में हार गया। उसके प्रभाव से कांचीपति पल्लवराज महेन्द्र बदले। प्रथम (६००-६३०) में जैनधर्म त्याग शैव बन गया।" शैवों द्वारा जैनों पर किये गये अत्याचार की साक्षी देने वाले पोरियपुराण, मदुरा के मीनाक्षी मन्दिर के चित्र काफी हैं। इस तरह तमिलनाडु से जैनधर्म समाप्त हो गया। फिर आन्ध्र प्रदेश में लिंगायत सम्प्रदाय ने आग में तेल का काम किया। रामानुज आचार्य ने (१२ सदी) में अपने अभियान में जैनों का धर्म परिवर्तन करवाया। इन जुल्मों के दो ही १३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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