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________________ यह बात शालिभद्र की पानी भरने आई दासियों ने सुन ली। उन्होंने व्यापारियों से पूछा- “भैया ! क्या बात ? आप हमारे देश की निंदा कर रहे हो ? राजा प्रजा को बुरा-भला कह रहे हो ?” व्यापारियों ने सारी आपबीती दासियों से कह डाली । दासियों ने कहा- "भैया ! आप हमारी मालकिन के पास चलो। शायद कोई समाधान निकल आये।" दासियों की बात सुनकर व्यापारी कुछ असमंजस में पड़ गये - "जिस समस्या का समाधान इनके राजा के पास नहीं, बेचारी मालकिन क्या करेगी ?" फिर भी दासियों के ज्यादा कहने पर वह शालिभद्र के महल में पहुँचे । व्यापारियों ने महल की भव्यता को देखा। दासियों ने महल का परिचय देते हुए कहा- "हम लोग तो प्रथम मंजिल पर ही रहती हैं। दूसरी मंजिल में हमारे मुनीम व उनके परिवार रहते हैं ।" व्यापारी अब तीसरी मंजिल में पहुँचे । यह शालिभद्र की माता का निवास था । दासियों ने कहा - "यह हमारी स्वामिनी हैं जिनका परिचय हमने आपको दिया था ।" सेठानी भद्रा ने व्यापारियों का अभिवादन किया । यथोचित अतिथि सत्कार करने के पश्चात् पूछा - "भैया ! आपने मेरे यहाँ पधारकर अनुकंपा की है। मैं तो किसी योग्य नहीं कि आपका सम्मान कर सकूँ। पर, मेरे योग्य जो सेवा हो बतायें, मैं यथा शक्ति पूर्ण करने की चेष्टा करूँगी।" व्यापारियों के मुखिया ने बताया - "बहिन ! हम नेपाल देश से रत्नकम्बल बेचने आये हैं, हर कम्बल की कीमत सवा लाख स्वर्ण मुद्राएँ है। यहाँ हमारा एक भी कम्बल नहीं बिका। इसी बात को लेकर हम दुःखी हैं, इसलिए शालिभद्र से मिलना चाहते हैं ।" व्यापारियों की बात सुनकर भद्रा बोली - " आप रत्नकम्बल मुझे ही दिखा दें। शालिभद्र तो अभी छोटा बच्चा है। वह व्यापार के योग्य नहीं हुआ। फिर यह बतायें कि आपके पास कितने रत्नकम्बल हैं ?” व्यापारियों ने कहा- "सोलह हैं ।" भद्रा ने कहा - "तुमने मुझे अजीब मुसीबत में डाल दिया है । मेरी बत्तीस पुत्र वधुएँ हैं । अब सोलह कम्बल हैं। मैं बाकी सोलह को क्या दूँगी ? अभी सोलह तो रख दो ।" व्यापारी ने देखा और सुना । उन्हें लगा कि वह किसी स्वर्गलोक में घूम रहे हैं। "क्या दें ? कैसे देना है ? कैसे यहाँ के लोग हैं ? हमारा अनुमान गलत निकला। हमें भारत के प्रति अपनी धारणा बदलनी है।' व्यापारियों ने सोलह रत्नकम्बल एक स्थान पर रख दिये। भद्रा ने मुनीम को बुलाकर कहा - "इन कम्बलों की जो कीमत बनती है, भण्डारी जी से कहकर इन्हें दे दीजिए।" व्यापारियों का सारा माल बिक गया। अब वह नगर की चहल-पहल देखने में मस्त थे। सुबह उनका राजगृह' से प्रस्थान था। उधर रानी चेलना ने रत्नकम्बल के लिए इतनी जिद पकड़ी कि राजा श्रेणिक ने व्यापारियों को फिर ढूँढ़ा । व्यापारी आये । राजा श्रेणिक को वन्दन किया। उन्हें योग्य तोहफे प्रस्तुत किये। राजा श्रेणिक ने व्यापारियों से कहा"हमें एक रत्नकम्बल की आवश्यकता है, वह दीजिये - व्यापारी ने प्रार्थना की- "राजन् ! रत्नकम्बल तो आपकी कृपा से एक ही सेठानी भद्रा ने खरीद लिए हैं। अब कोई कम्बल बाकी नहीं। हम जब पुनः आयेंगे तब लाकर देंगे ।" राजा श्रेणिक को व्यापारियों की बात पर पहले विश्वास न हुआ, फिर उसने भद्रा सेठानी का पता किया और एक कम्बल उसी से खरीदने का मन बनाया । सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only १५१ www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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