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________________ प्रश्नोत्तरों से जयन्ती को पूर्ण संतोष हुआ। उसने हाथ जोड़कर कहा-"भगवन् ! कृपया मुझे प्रव्रज्या देकर अपने भिक्षुणी-संघ में दाखिल कीजिये।" श्रमण भगवान ने जयन्ती की प्रार्थना को स्वीकृत किया और उसे सर्वविरति सामायिक की प्रतिज्ञा एवं पंच महाव्रत प्रदान कर भिक्षुणी-संघ में दाखिल कर लिया। ____ वत्सभूमि से भगवान ने उत्तरकोसल की तरफ विहार किया और अनेक गाँव-नगरों में निर्ग्रन्थ प्रवचन का उपदेश देते हुए श्रावस्ती पहुँचे। श्रावस्ती के कोष्ठक चैत्य में आपका जो उपदेश हुआ, उसके फलस्वरूप अनेक गृहस्थ जैनसंघ में दाखिल हुए। अनगार सुमनोभद्र और सुप्रतिष्ठ आदि की दीक्षायें भी इसी अवसर पर हुई थीं। ___कोसल प्रदेश से विहार करते हुए श्रमण भगवान फिर विदेह भूमि में पधारे। यहाँ वाणिज्यग्राम-निवासी गाथापति आनन्द और उनकी स्त्री शिवानन्दा ने आपके समीप द्वादशव्रतात्मक गृहस्थ धर्म स्वीकार किया। सुमनोभद्र व सुप्रतिष्ठ की प्रव्रज्या कोशाम्बी में धर्म--प्रचार करने के बाद प्रभु महावीर श्रावस्ती नगरी पधारे। उस समय सुमनोभद्र और सुप्रतिष्ठ ने दीक्षा ग्रहण की। लम्बे समय तक संयम पालन किया। अंतिम समय में सुमनोभद्र ने राजगृह के विपुलाचल पर समाधिमरण द्वारा मोक्ष प्राप्त किया। सुप्रतिष्ठ मुनि ने भी सत्ताईस वर्ष तक प्रभु महावीर के चरणों में संयम की आराधना कर विपुलाचल पर्वत से सिद्धि प्राप्त की।१० गृहपति आनन्द द्वारा श्रावक धर्म की आराधना अंगशास्त्र में उपासकदशांगसूत्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस आगम में प्रभु महावीर के दस प्रमुख श्रावकों का वर्णन है। आनंद गाथापति का वर्णन प्रथम अध्ययन में आया है जिसका वर्णन हम इसी आगम के आधार पर कर रहे हैं।११ उस समय प्रभु महावीर ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वाणिज्यग्राम में पधारे। वहाँ का राजा जितशत्रु था। वह अपनी प्रजा के साथ प्रभु महावीर के दर्शनार्थ आया। वहाँ समवसरण लगा हुआ था। प्रभु महावीर का मंगलमय प्रवचन चल रहा था। उसी नगर में आनंद नाम का श्रेष्ठी रहता था। उसके पास करोड़ों की सम्पत्ति, विशाल खेत, समुद्री जहाज व गायों के झुंड थे। उसने नगर में अद्भुत चहल-पहल देखी। उसे पता चला कि जगद्गुरू श्रमण भगवान महावीर पधारे हैं, लोग उनका प्रवचन सुनने, उनकी वन्दना करने जा रहे हैं। __वह बहुत प्रसन्न हुआ। उसने स्नान किया, शुद्ध वस्त्र पहने, आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया। फिर वाणिज्यग्राम के मध्य से गुजरता धुतिपलाश चैत्य में पहुँचा। यहीं पर प्रभु महावीर अपना धर्म उपदेश दे रहे थे। आनंद ने तीन आदक्षिणा-प्रदक्षिणापूर्वक प्रभु महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। फिर योग्य स्थान ग्रहण कर प्रभु महावीर का उपदेश सुनने लगा। उपदेश उसे रुचिकर लगा। उसे प्रभु महावीर के निग्रंथ प्रवचन पर अथाह श्रद्धा हो गई। प्रवचन सम्पन्न होने के पश्चात् उसने प्रभु महावीर से निवेदन किया"प्रभु ! मैं साधु-जीवन ग्रहण करने में असमर्थ हूँ इसलिए मैं आपसे गृहस्थ के द्वादश व्रत ग्रहण करना चाहता हूँ।'' प्रभु महावीर ने कहा-“देवानुप्रिय ! जैसे आपकी आत्मा को सुख हो, वैसा करो पर शुभ कार्य में प्रमाद मत करो।" इस प्रकार आनंद गाथापति "श्रमणोपासक" बन गया। उसकी धर्मपत्नी शिवानंदा ने भी अपने पति का अनुकरण किया। इन व्रतों, नियमों व आनंद श्रावक को अवधिज्ञान का वर्णन इसी शास्त्र में आया है। हम यथा स्थान पर आनंद के अवधिज्ञान का वर्णन करेंगे। सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र १४९ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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