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________________ उसने अपने माता-पिता से प्रार्थना की- “आपने मेरा दीर्घकाल तक लालन-पालन किया है। मेरे कारण आपने बहुत ही काम किया है, किन्तु मैं संसार के जन्म- जरा के दुःख से ऊब चुका हूँ। मेरी भावना प्रभु महावीर के चरणों में संयम धर्म स्वीकार करने की है।" माता-पिता ने मेघकुमार को बहुत समझाया। संसार के सुखों का लालच दिया । साधुचर्या के कष्ट बताये । पर मेघ न माना । उसने बड़ी लम्बी चर्चा अपने माता-पिता से की। माता-पिता ने सोचा- 'अब हमारे पुत्र पर वैराग्य का रंग चढ़ चुका है। इसे रोकना बेकार है ।' फिर माता-पिता की भावना को सम्मानित करते हुए उसने एक दिन का राज्य - सिंहासन स्वीकार किया । सिंहासन पर बैठते ही उसने माता-पिता से रजोहरण, पात्र आदि की माँग की। माता-पिता ने देखा कि वैराग्य का रंग पक्का है। हम इसे ज्यादा समय नहीं रोक सकते। एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ राजा श्रेणिक ने व्यय कर साधु के उपकरण मँगवाये । उसका दीक्षा महोत्सव राज्याभिषेक की तरह मनाया गया । रात्रिको अवहेलना मेघकुमार अब प्रभु महावीर का शिष्य बन चुका था । प्रथम दिन था । दिन तो साधुचर्या की उपासना करते-करते बीत चुका था। रात्रि आई । साधु जीवन समता और समानता का नाम है। वहाँ राजकुमार और दारिद्रकुमार में भेदरेखा नहीं खींची जा सकती । इसी कारण रात्रि को उसे सोने के समय, दरवाजे के पास निचले स्थान का आसन मिला। उपाश्रय में अंधेरा था। रात्रि को अन्य मुनि अपनी शारीरिक जरूरतों के कारण बाहर आते तो अंधेरे के कारण हर एक के पाँव की टक्कर उसके आसन के साथ लग जाती इसी कारण वह सो नहीं पा रहा था । उसने सोचा- 'मैं साधु बनकर फँस गया हूँ। जब मैं राजकुमार था तो यही साधु मेरा सम्मान करते थे । अब मैं गृह-त्यागी हूँ। अब इनका सम्मान समाप्त हो गया है। यह मुझे ठोकरें मार रहे हैं। चलो रात्रि समाप्त होने दो, सुबह होते मैं प्रभु महावीर को सभी धर्मों के उपकरण लौटाकर घर आ जाऊँगा ।' प्रभु महावीर द्वारा पूर्वभवों का वर्णन इस प्रकार यह विचारों की उथल-पुथल थी। सुबह हुई। सभी साधु-साध्वी प्रभु महावीर के दर्शन को पधारे। प्रभु महावीर ने मेघ मुनि को देखते ही कहा- "मेघ ! क्या तुम साधना-पथ से पीछे हटने का विचार कर रहे हो ? युद्ध के मैदान में पहुँचकर वीर निरन्तर आगे कदम बढ़ाता है। तुम वीर हो, तथापि कायर की तरह पीछे हटना चाहते हो । थोड़े से कष्ट में धैर्य खो बैठे। याद करो, पशु के भव में तूने जो स्वयं पर विजय पाई थी और फिर मानव - जन्म मिला। अब थोड़े संकट से हार गये । लो सुनो, मैं तुम्हें तुम्हारे पिछले दो भवों की कहानी सुनाता हूँ जिससे तुम्हें पता चले कि दो भवों में तूने पशु भव में कितनी धर्म-आराधना की थी, जिसके प्रभाव से तुम्हें इतना अच्छा कुल मिला।" के मुनि प्रभु महावीर के सम्बोधन से सावधान हुए और अपने पूर्वभव की बात सुनने लगे मेघ ! पूर्वभवों की बात है । विध्यांचल के सघन जंगलों में एक जंगल था, उस जंगल में सुमेरुप्रभ नाम का सफेद हाथी रहता था। वह अपने झुण्ड का राजा था। अपने विशाल परिवार का स्वामी था। एक बार उस जंगल में आग लगी। उस जंगल में दावानल के कारण ज्वालाएँ आकाश को चूमने लगीं। पशु-पक्षी उस स्थान को छोड़ने लगे। सभी जानवर आग में जलने लगे। सुमेरुप्रभ अनेक हाथियों के साथ घायल हो गया। दिन के बाद आग शान्त हो गई । इस विनाश - लीला को देखकर वह चिन्तित हो गया । कुछ दूसरे जन्म में भी तुम इसी नाम के हाथी बने । तुम्हें पूर्वभव की स्मृतियाँ ध्यान में थीं। इस जन्म में भी 'आग द्वारा हानि न हो।' इस बात को सोचते हुए सुमेरुप्रभ ने नदी के किनारे विशाल मण्डप बनाया। लम्बी दूरी तक उसने पेड़ सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र १४२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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