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हाँ, व्यवहार से उत्तम, भद्र प्रकृति के जीवों को हम देव कह सकते हैं। पर उत्पत्ति से तो वही देव कहलायेंगे जो स्वर्गलोक में पैदा होकर मनुष्य से अनेक गुणा शक्ति और विलक्षण दिव्य शक्ति को धारण करने वाले होंगे।'
मौर्यपुत्र-“यदि देव है तो वे अपनी इच्छानुसार धरती पर मनुष्यलोक में क्यों नही आते ?'
यह वह शंका थी जो आज भी संसार के नास्तिकों के प्रश्नों का आधार है। प्रभु महावीर ने इस प्रश्न का भी सहज, सरल, सुन्दर उत्तर दिया। प्रभु महावीर-''हे आर्य ! सामान्य रूप से देव इस देवलोक में इसलिये नहीं आते कि वे स्वर्ग के दिव्य पदार्थों में आसक्त रहते हैं। वहाँ के विषयभोगों में लिप्त रहते हैं। इन भोगों में विचरण करते हुए उन्हें अवकाश ही नहीं प्राप्त होता कि वे धरती पर आयें।
मनुष्यलोक में इतनी दुर्गन्ध भरी है कि वह भी उनके धरती पर आने में रुकावट है। वे धरती पर बिना प्रयोजन नहीं आते। फिर भी वे कभी-कभी इस लोक में आते हैं।
वे तीर्थंकरों के पंच-कल्याणकों के समय आते हैं। पूर्वभव के राग-द्वेष के कारण आते हैं। बिना प्रयोजन वे धरती पर नहीं आते।"
इस प्रकार प्रभु महावीर की बातें सुनकर मौर्यपुत्र को देवताओं के अस्तित्त्व पर पूर्ण विश्वास हो गया।
वह भी प्रभु महावीर के समक्ष आये। दोनों हाथ जोड़कर प्रार्थना की-“हे देवानुप्रिय ! मुझे निग्रंथ प्रवचन का उपदेश दीजिए।" प्रभु महावीर ने उनकी इच्छा पूर्ण की। वह भी प्रभु महावीर के पास अपने शिष्यों सहित प्रव्रजित हो गये। अकम्पित के संशय व प्रव्रज्या
इसके बाद इसी यज्ञ में सम्मिलित अकम्पित नामक विद्वान् अपने शिष्य-परिवार सहित प्रभु महावीर के समवसरण में पहुँचा। प्रभु महावीर ने उसे देखते ही कहा-आर्य अकम्पित ! तुम्हारे मन में नरक के अस्तित्त्व के बारे में संशय है।"
अकम्पित-“जी हाँ ! यद्यपि दार्शनिक लोग 'नरक' नामक एक अगम्य स्थान की कल्पना करते हैं पर मेरी समझ में तो यह कोरी कल्पना मात्र है जिसे विद्वान् लोग नरक कहते हैं। मेरे विचार से उसका तात्पर्य मनुष्य जीवन की एक निकृष्ट दशा से है।"
प्रभु महावीर-“तुम्हारे इस प्रकार मानने से कर्म-सिद्धांत चल नहीं सकता। मनुष्य कितना भी दुःखी क्यों न हो, फिर भी उसमें सुख का अंश रहता ही है। जो जीव जीवन-पर्यन्त हिंसा, असत्य, चोरी और परिग्रह में लीन रहते हैं। हजारों जीवों के प्राणघातक हैं। दुनियाँ भर की सम्पत्ति इकट्ठी करने में अपना जीवन समझते हैं। इस प्रकार के जीवन को पूर्ण कर अंत समय मृत्यु को प्राप्त करते हैं। उनके लिए क्या निकृष्ट मनुष्यगति अथवा कीट-पतंग आदि के जन्म ही काफी होंगे? ऐसे पापियों का छटकारा मनष्य अथवा तिर्यंचगति से नहीं हो सकता। उनके कर्मफल भ स्थान तो चाहिये, जहाँ सुख का अंश भी न हो। जहाँ आय करोडों, अरबों वर्ष हो। इस दःखात्मक स्थान को मैं नरक कहता हूँ।''
अकम्पित-“लेकिन “न द्वै प्रेत्य नरके नारकाः सन्ति।" इस बात से सिद्ध होता है कि मरकर नरक में नारक नहीं होते फिर नरक की कल्पना बेकार है।" प्रभु महावीर-“शास्त्र में नरक का प्रतिपादन भी किया गया है-“नारको वै एष जायते यः शुद्रान्नमश्नाति।" इस वेद वाक्य में ये शूद्र का अन्न खाने वाले को नारक होना लिखा है।
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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