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________________ है। कर्मबंध का कारण कषाय है। राग-द्वेष कर्मबंध का बीज है। यह जड़ होते हुए भी चेतन को उसी प्रकार फल देता है जैसे शराब शराबखाने में पड़ी कुछ नहीं कहती। पर शरीर के अंदर जाकर विभिन्न असर दिखाती है। ऐसे कर्म जड़ पदार्थ चेतन को कर्मफल देने में सक्षम हैं। कर्म के बंधन सघन हैं। इन्हें काटना बहुत कठिन है। आत्मा जन्मांतर से इन्हीं बंधनों से बँधी चली आ रही है। बंध का स्वरूप आपको बता चुका हूँ। बंधन से छूटते ही आत्मा की मंजिल मोक्ष है जो शाश्वत सुख का स्थान है। इस प्रकार मंडिकपुत्र भी बंध व मोक्ष संबंधी प्रश्नों का समाधान पाकर शिष्य-परिवार के साथ दीक्षित हो गये। मंडिकपुत्र की दीक्षा के पश्चात् मौर्यपुत्र अपने शिष्य-परिवार सहित प्रभु महावीर के समक्ष आये। मौर्यपुत्र के समाधान व प्रव्रज्या ___ मौर्यपुत्र के समाधान व प्रव्रज्या प्रभु महावीर ने उन्हें देखते ही पूछा-- “हे आर्य ! तुम्हें देवों के अस्तित्त्व पर शंका है ?'' मौर्य-"हाँ देवानुप्रिय ! मुझे यही शंका है 'देव' नाम के मनुष्यों को हम देव कह सकते हैं क्योंकि जो सम्पन्न है, सुखी हैं वे सब देव ही हैं। शास्त्र में मुझे कोई एकरूपता दिखाई नहीं दी। श्रुति वाक्य है--"को जानाति मायोपमान गीर्वाणाविन्दु।" अर्थात् यम, वरुण कुवेरादी इत्यादि वाक्यों इन्द्र, यम, वरुणों, कुवेर देवों को स्वप्नोपम बताते हैं।" दूसरी ओर “स ऐष यज्ञाषुधि यजमानोऽज्जमा स्वर्गलोकं गच्छति।" इस श्रुति वाक्य से प्रकट होता है यजमान के यज्ञ की सहायता से स्वर्ग गति प्राप्त होती है। प्रस्तुत वेद वाक्य से भी देवों की सिद्धि दिखाई देती है अपाय सोमभद्रता अभागमनज्योतिऽविदाय देवम्। किं नून मात्मा णवदराति, किम धूर्तिरभृमृतम् धर्मस्य।१८ यह वेद वाक्य भी देवलोक के अस्तित्त्व को सिद्ध करता है। प्रभु महावीर ने समाधान करते हुए फरमाया-'हे आर्य ! तुम मायोपमान इत्यादि श्रुति वाक्य का अर्थ ठीक से नहीं जान सके। यही तुम्हारी शंका का कारण है। इस वाक्य से देवों का निषेध नहीं सिद्ध होता। देवों में अनित्यता पाई जाती है इस बात की ओर इशारा है। देव जो दीर्घायु होते हैं वह भी आखिर स्वप्न की तरह नाम शेष हो जाते हैं तो मनुष्य आदि कम आय के पुरुषों का तो कहना ही क्या है ? मौर्यपुत्र-“देवलोक नामक एक नई दुनियाँ की कल्पना करने के बदले यह क्यों न मान लिया जाये कि विशिष्ट स्थिति सम्पन्न मनुष्य ही देव है ?'' प्रभु महावीर-“मनुष्य वह गति है जहाँ जन्म पाये प्राणी सुख-दुःख मिश्रित जीवन व्यतीत करते हैं। मनुष्यलोक में हर व्यक्ति न तो पूर्ण सुखी और न ही पूर्ण दुःखी है। कर्म का दुःख सब भोगते हैं। शारीरिक व मानसिक दुःख अलग हैं। इस संसार में कोई भी अपनी इच्छाएँ पूरी नहीं कर पाता। महानुभाव ! मानव संसार की इस अपूर्ण सुख-सामग्री को देखकर मानना होगा कि मनुष्यलोक केवल पुण्यफल भोगने का स्थान नहीं, यहाँ पाप भी भोगा जाता है। __ इसलिए पुण्य फल भोगने का कोई दूसरा स्थान है जहाँ जीव दीर्घायु तक सुख भोगता है इसी स्थान का नाम देव लोक है। वहाँ उत्पन्न होकर हजारों, लाखों, करोड़ों, अरबों, खरबों वर्ष से भी अधिक समय पुण्य कर्म के फल भोगने वाले देव होते हैं। सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र __ १२७ १२७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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