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वायुभूति की धर्मचर्चा और प्रव्रज्या
इन्द्रभूति और अग्निभूति के अपने शिष्य सहित प्रव्रजित होने के समाचार सुनकर वायुभूति को संबोधित करते हुए कहा-“वायुभूति ! तुम्हारे मन में यह संशय है कि जीव और शरीर एक ही हैं या पृथक् हैं। तुम्हें वेद-वाक्यों का सही अर्थ ज्ञात नहीं, इसीलिए तुम्हें इस प्रकार का संदेह हो रहा है।''
तुम्हारी मान्यता है कि पृथ्वी, जल, तेज और वायु इन चार भूतों के समुदाय से चैतन्य उत्पन्न होता है। जैसे मदिरा पैदा करने वाली भिन्न वस्तुओं से मद शक्ति दृष्टिगोचर नहीं होती तथापि उनके समुदाय से मद शक्ति उत्पन्न होती है। इसी प्रकार पृथ्वी आदि किसी भी पृथक् भूत में चैतन्य शक्ति दृष्टिगोचर नहीं होती तथापि उसके समुदाय से सशक्ति पैदा होती है और कुछ समय तक स्थिर रहकर उसके पश्चात् कालान्तर के विनाश की सामग्री उपस्थित होने पर फिर से नष्ट हो जाती है। इसी तरह भूतों के समुदाय से चैतन्य उत्पन्न होता है और कुछ समय तक विद्यमान रहने पर उसके पश्चात् विनाश की सामग्री मिलने पर फिर से नष्ट हो जाता है इसलिए पदार्थ में मद शक्ति का अस्तित्त्व अवश्य मानना चाहिए।
इस चर्चा को सुन वायुभूति ने पुनः प्रश्न किया
"आर्य ! मैं अब भी ऐसा समझता हूँ कि शरीर से भिन्न कोई जीव की सत्ता नहीं है। क्योंकि विज्ञानघन इत्यादि श्रुति वाक्य भी यही प्रतिपादन करता है कि यह ज्ञानात्मक है 'आत्म-पदार्थ' इन भूतों से प्रकट होता है, इन्हीं में विलीन हो जाता है। पूर्वजन्म जैसा कोई भाव नहीं है।'
प्रभु महावीर-“मैं आपके भूत समुदाय की मान्यता का पहले ही स्पष्टीकरण कर चुका हूँ। रही बात श्रुति वाक्य की, वेदों से आत्मा का अस्तित्त्व सिद्ध होता है-“सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा इत्यादि श्रुति वाक्य से आत्मा के अस्तित्त्व को भी सिद्ध करते हैं।"
वायुभुति-“प्रभु ! यदि यह मान भी लें कि जड़ से चेतन की उत्पत्ति होती है तो भी भूतों के अतिरिक्त आत्मा के अस्तित्त्व का प्रमाण क्या है ?"
प्रभु महावीर-“मैं तुम्हें आत्मा की सिद्धि के लिए अपना पक्ष प्रस्तुत करता हूँ
(१) जिस प्रकार पाँच झरोखे से भिन्न स्वरूप देवदत्त का धर्म चैतन्य है। उन झरोखों को देखने वाला देवदत्त एक ही है। झरोखे पाँच हैं। इस प्रकार पाँचों इन्द्रियों से ग्रहण किये पदार्थ का स्मरण करने वाला इन्द्रियों से भिन्न कोई न कोई तत्त्व अवश्य होना चाहिये। इसी तत्त्व का नाम आत्मा या जीव है। यदि इन्द्रियों को उपलब्धिकर्ता मान लिया जाता है, तो सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि इन्द्रिय-व्यापार के बन्द होने या विनाश होने पर भी इन्द्रियों द्वारा गृहीत वस्तु का स्मरण होता है। कभी-कभी इन्द्रिय-व्यापार का अस्तित्त्व में भी अन्यमनस्क को वस्तु का ज्ञान नहीं होता। इसलिये यह मानना चाहिये कि किसी वस्तु का ज्ञान इन्द्रियों को नहीं होता। अपितु इन्द्रियों से भिन्न किसी द्रव्य पदार्थ को होता है वह ज्ञाता तत्त्व आत्मा है।
(२) द्वितीय अनुमान यह है कि आत्मा इन्द्रियों से अलग है। चूँकि वह एक इन्द्रिय से ग्रहण किये पदार्थ का दूसरी अन्य इन्द्रिय से भी ग्रहण करता है। वस्तु का ग्रहण एक इन्द्रिय से होता है किन्तु विकार दूसरी इन्द्रिय से होता है जैसे नेत्रों के द्वारा इमली, निम्बू आदि पदार्थ देखते हैं पर जिह्वा से उसके स्वाद का पता चलता है इसीलिए मानना पड़ता है आत्मा इन्द्रिय से अलग है।
(३) तृतीय अनुमान यह है कि जीव इन्द्रिय से पृथक् है। चूँकि वह सभी इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किये हुए अर्थ का स्मरण करता है। जैसे अपनी इच्छा से रूप आदि एक-एक गुण के ज्ञाता ऐसे पाँच पुरुषों से रूप आदि ज्ञान को जानने वाला पुरुष अलग है। उसी तरह पाँचों इन्द्रियों से उपलब्ध अर्थ का स्मरण करने वाले, पाँचों इन्द्रियों से अलग कोई तत्त्व होना चाहिए। वह तत्त्व आत्मा है।१०
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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