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सोम, यम, वरुण व कुबेर देव पहरा देते हैं। समवसरण में सभी जीव अपने परस्पर के वैर भूल जाते हैं। किसी प्रकार का भय नहीं होता।
यह प्रथम परकोटे का वर्णन है। समवसरण का दूसरा व तीसरा परकोटा
समवसरण के दूसरे परकोटे में सभी प्रकार के पशु-पक्षी बैठते हैं। ये सभी पंचेन्द्रिय होते हैं। परकोटे के अंदर-बाहर तिर्यंच जीव बैठते हैं। तीसरे प्रकार के निचले विभाग में देव व मनष्यों के वाहन खडे होते हैं। इसके बाहर खली जगह में तिर्यक् (पशु), मनुष्य व देव भी होते हैं। वे कभी-कभी तीनों मिलकर समवसरण में प्रवेश करते हैं, निकलते हैं। इतनी भीड़ होने पर भी वहाँ शोर का नामोनिशान दिखाई नहीं देता। किसी भी प्रकार की मैं-मैं-तू-तू जैसे शब्द सुनाई नहीं देते।
समवसरण की जैनधर्म में बहुत महिमा है। जिस मुनि ने पहले समवसरण नहीं देखा, वह बारह योजन चलकर समवसरण में आता है। समवसरण के प्रभाव से १२-१२ योजन के साधु समवसरण में प्रभु-दर्शन व उपदेश ग्रहण करने आते हैं। अगर कोई समवसरण में नहीं आता तो उसके व्यवहार, सम्यक दर्शन में चल, मल और अगाढ़ दोष की संभावना होने से उसकी शुद्धि में चार उपवास का प्रायश्चित है।
समवसरण में प्रभ का रूप अतिशय सन्दर होता है। इसके बारे में शास्त्रकार ने एक उदाहरण दिया है-“अगर समस्त देवलोक के देव भी सम्पूर्ण वैक्रिय शक्ति से ऐसा रूप बनाना चाहें, तो वह प्रभु के अंगूठे का रूप भी नहीं बना सकते। शरीर बनाना तो दूर की बात है।
समवसरण में तीर्थंकर परमात्मा के नामकर्म उदय से सभी लोग धर्माचरण करते हैं, प्रतिबोध पाते हैं, त्याग करते हैं, साधु या श्रावक दीक्षा ग्रहण करते हैं।
शास्त्रकार कहते हैं-"भगवान का उत्कृष्ट रूप देखकर सबका अहंकार गल जाता है। इन सब कारणों से प्रभु महावीर का रूप प्रशंसनीय है।"२
समवसरण में उपदेश प्रारम्भ करने से पहले प्रभु विनयपूर्वक साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकारूपी तीर्थ को वन्दन करते हैं। वे अर्ध-मागधी भाषा में उपदेश करते हैं, जिससे उनका उपदेश पशु तक अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं। बाकी बातें तीर्थंकर की वाणी में ३५ गुणों में कही गई हैं।
तीर्थंकर का उपदेश एक योजन तक दसों दिशाओं में सहज सुना जा सकता है।
समवसरण में १२ प्रकार की परिषद् होती हैं। तीर्थकर का उपदेश कभी खाली नहीं जाता। उनके उपदेश का प्रभाव मन पर इस प्रकार जम जाता है कि उनकी वाणी के प्रभाव से लोग यथा-शक्ति व्रत ग्रहण करते हैं। तिर्यच व देव को छोड़ सभी मानव कुछ न कुछ उपदेश अमृत का फल पाते हैं।
तीर्थंकर समवसरण में प्रथम पहर उपदेश देते हैं। फिर अपनी धर्मकथा को सम्पन्न कर उत्तर द्वार से प्रथम परकोटे से निकलकर द्वितीय परकोटे के अंदर पूर्व दिशा में स्थित देवच्छन्दक में विराजित होते हैं।
दूसरे प्रहर में गणधर धर्मकथा करते हैं भगवान नहीं। गणधर या तो राजा आदि द्वारा समवसरण को भेंट किये सिंहासन पर बैठकर कथा करते हैं या तीर्थंकर सिंहासन के पादपीठ पर। गणधर तीर्थंकरों के उपदेशों को दोहन करते हैं। श्रोताओं द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देते हैं। समवसरण में सभी जीवों को सुनने के लिए कुछ न कुछ मिलता है।
१. आवश्यकनियुक्ति मलयगिरि वृत्ति ५६४ २. आवश्यकनियुक्ति ५७४
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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