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साधनाकाल के १५ वर्ष, ५ मास, १५ दिन बीत चुके थे। प्रभु महावीर विहार करते हुए ऋजुबालुका नदी के तट पर एक उद्यान में शाल वृक्ष के नीचे ध्यानावस्थित हुए। उकडू आसन में बैठे। वैसाख महीने की कड़ी धूप में भी प्रभु (महावीर) शीतलता अनुभव करते हुए तन, मन, प्राणों को अकम्प सुस्थिर बनाकर शुक्लध्यान में लीन हो रहे थे। उनकी घनघाति कर्मों की श्रृंखला आवरण हटते ही सहसा केवलज्ञान, केवलदर्शन का लोकालोक प्रकाश-भास्कर उदित हो गया। प्रभु महावीर अब निश्चय दृष्टि से भगवान, जिन, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी बन गये। केवलज्ञान होते ही कुछ क्षणों के लिए स्वर्ग-नरक और तिर्यक् लोक में प्रकाश-सा फैल गया।'
प्रथम धर्म-उपदेश में जिस समवसरण की देवों ने रचना की, उसका शब्दार्थ क्या है ? समवसरण का जैनधर्म में क्या महत्त्व है ? देव इसकी रचना कैसे करते हैं ? इन बातों की चर्चा हम आगे करेंगे। __ एक बात यहाँ स्पष्ट करना जरूरी है कि समवसरण तीर्थंकर केवली को ही प्राप्त होता है, सामान्य केवली को नहीं। समवसरण में ही अष्ट प्रातिहार्य, ३४ अतिशय शोभायमान होते हैं। यह देवताओं का कल्प है, परम्परा है कि तीर्थंकर का केवलज्ञान महोत्सव देवगण धूमधाम से मनाते हैं। फिर सारी आयु उनके लिए समवसरण की रचना करते रहते हैं। __समवसरण की सारी रचना तीर्थंकर की बाह्य शक्ति को प्रदर्शित करती है। सामान्य केवली तीर्थंकर की मौजूदगी में किसी प्रकार का उपदेश भी नहीं करते। वे तो आत्म-भाव में ही लीन रहते हैं। समवसरण का ऐसा वर्णन किसी अन्य धर्म में देखने को नहीं मिलता है। समवसरण : रचना व स्वरूप
समवसरण वह स्थल है जिस स्थल पर तीर्थंकर प्रभु धर्म-उपदेश देते हैं। देखा जाए तो यह प्राचीनकाल की व्यवस्था है, जिसकी जिम्मेदारी मनुष्यों पर न होकर देवों पर होती है। समवसरण देवकृत है, जहाँ तीर्थंकर विराजते हैं। भगवान के पधारने से पहले देवता उसी की रचना कर देते हैं।
तीर्थंकर परमात्मा की सेवा में ६४ इन्द्र अपने भिन्न-भिन्न रूपों में स्वयं रहते हैं। अन्य देवी-देवता अपने परिवार समेत धर्म-उपदेश सुनते हैं। समवसरण में लाखों मनुष्य ही नहीं, अनगिणत पशु व देव भी आते थे। ___ लगभग एक योजन (१२ किलोमीटर) के क्षेत्र में अगणित देवी-देवता के बैठने की व्यवस्था होती थी। उनके वाहन खड़े होने की व्यवस्था भी होती थी। तीर्थंकरों के दर्शन, चिन्तन और अनुप्रेक्षण करने से भावना, प्रतीति और सम्यक्त्व की स्पर्शना निर्मल एवं सुदृढ़ होती थी। वीतरागी के सान्निध्य में बैठकर उनके दर्शन-प्रवचन से विभिन्न अतिशय अनुभव होते थे। शुभ भाव प्रकट होते थे। आपसी वैर-विरोध स्वयमेव समाप्त हो जाता था। ___ भगवतीसूत्र २/२३-५/१११ और औपपातिकसूत्र ३४ में समवसरण में आने का फल बताया गया है। गणधर गौतम कहते हैं- “हे देवानुप्रिय ! यह हमारे लिए महाफल का कारण है तथारूप अरिहंत भगवंतों का नाम-गोत्र सुनना भी महाफल रूप है फिर उनके सम्मुख वन्दना, नमन, परिपृच्छा (प्रश्न पूछना), पर्युपासना का तो कहना ही क्या? तीर्थंकरों का एक भी सुवचन का श्रवण बहुत बड़ी बात है। उनका वन्दन, नमनादि इस भव में, पर-भव में, जन्म-जन्मांतर में हमारे लिए हितकर, सुखकर, शांतिप्रद, निःश्रेयस्पद मोक्षप्रद होगा। समवसरण तीर्थंकर परमात्मा की धर्म-परिषद् है। सम्यक रूप से एक जगह जहाँ मिलना हो उसे समवसरण कहते हैं।" समवसरण रचना-प्रतिरूप
जिस ग्राम, नगर या क्षेत्र में अभूतपूर्व समवसरण की रचना देवों द्वारा करनी होती है, वहाँ वे देव पहले महाऋद्धिक देव अभियोग्य देवों को सूचित करते हैं। तब वह अभियोग्य देव एक योजन परिमंडल भूमि की
साफ और समतल कर देते हैं। फिर सुगन्धित जल से वर्षा करते हैं। फिर इस भूमि को सुगन्धित करने के लिए पुष्प-वृष्टि करते हैं। तत्पश्चात् व्यन्तर देव चारों दिशाओं में मणि, कनक और रत्नों से जटित (मुख्य द्वार) बनाते हैं। उन द्वारों पर छत्र, स्तम्भ पूतिलका मकर मुख-ध्वज और स्वस्तिकादि चिन्हों की रचना करते हैं। फिर सुरेन्द्र जाते हैं। अपनी शक्ति से रत्नों के तीन श्रेष्ठ परकोटे बनाते हैं जो मणिकांचन के कंगूरों द्वारा सुशोभित होते हैं।
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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