SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ केवलज्ञान महोत्सव श्रमण महावीर की साढ़े बारह वर्ष की घोर तपस्या अब सिद्धि के द्वार पर पहुँच रही थी । प्रभु महावीर की क्षमा, सहनशीलता, सरलता, मृदुता अनुपम थी। कषायहीन थी। उनका तप किसी क्षुद्र उद्देश्य के लिए नहीं था क्योंकि उद्देश्य से किया गया तप मोक्ष का कारण नहीं बनता। उनका तप तो जन्म मरण की परम्परा समाप्त कर, शाश्वत सुख के लिए था। उनकी साधना आत्मा से परमात्मा बनने को थी । मनुष्य जीवन की श्रेष्ठता का यह शिखर था । प्रभु महावीर आत्म-साधना में लीन होते हुए जंभीय गाँव पधारे। गाँव के बाहर ऋजुबालुका नदी बहती थी । प्रभु महावीर ने श्यामाक नामक गाथापति के धान के खेत में गोदोहिका आसन ग्रहण किया। इसका वर्णन कल्पसूत्र में इस प्रकार आया है अनुत्तर ज्ञान, असीम दर्शन, उत्कृष्ट चारित्र, निर्दोष आश्रय, प्रशस्त विहार, अनन्त पराक्रम, सहजतम सरलता, विनम्रता, अनुपम लघुता, प्रशस्ति, शान्ति, अनुपम अपरिग्रह, चरम गुप्ति, शाश्वत प्रसन्नता तथा अनुत्तर सत्य, संयम, तप आदि गुणों से आत्मा को परिपूर्ण करके, सम्यक् आचरण करते हुए मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर सफलतापूर्वक आगे बढ़ते हुए भगवान को १२ वर्ष बीत गये । तेरहवें वर्ष के मध्य की गर्मी का दूसरा महीना था। चौथा पक्ष चल रहा था । वैशाख शुक्ल दशमी के दिन जब छाया पूर्व की तरफ ढलने लगी थी। प्रमाणोपेत पौरुषी आ गई थी । सुव्रत नाम का दिन था। विजय मुहूर्त्त था । जंभिय गाँव के बाहर ऋजुबालुका नदी के किनारे खण्डहर बन रहे विजयावर्त चैत्य से न अधिक दूर न अधिक पास, श्यामाक नामक गृहस्थ कृषक के खेत में शाल वृक्ष के नीचे भगवान महावीर गोदोहिका आसन में तपस्यारत व चरम एकाग्रपूर्व ध्यानमग्न थे । प्रभु महावीर का निर्जल बेला चल रहा था। ऐसे में हस्तोत्तरा नक्षत्र का योग आने पर श्रमण भगवान महावीर को अनंत, सर्वोत्कृष्ट, अव्याघात, निरावरण, समग्र तथा परिपूर्ण केवलज्ञान व केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। ( कल्पसूत्र १२०-१२३) शास्त्रकार आगे कहते हैं तब श्रमण भगवान महावीर अर्हत् हुए, जिन हुए और केवलज्ञानी सर्वज्ञ - सर्वदर्शी बन गये । भगवान महावीर अब देव, मनुज, असुरादि के साथ-साथ संसार के सभी पर्यायों को जानने-देखने लगे । समस्त लोक में समस्त जीवों के आने, जाने, रहने, गिरने, उठने, विचार, मनःस्थिति, संकल्प भाव, भोग्य कृत और सेवित भाव प्रकट तथा गुप्त कार्यों और कर्मों को भगवान महावीर जानने - देखने लगे । उनके अर्हत् हो जाने से उनके लिए रहस्य- जैसा कुछ भी अनजाना नहीं बचा। उस समय सर्वलोकों के मन, वचन, काया की वृत्तियों में लगे सभी जीवों में सभी भावों को जानते-देखते अर्हत् महावीर विचरने लगे । भगवान महावीर के केवलज्ञान से समस्त देवलोक व मनुष्यलोक में खुशी की लहर दौड़ गई। देव परम्परा को निभाते हुए देवों ने प्रथम समवसरण (धर्म सभा) की रचना ऋजुबालुका नदी पर की। इसमें केवल देव शामिल हुए। मनुष्यों के शामिल न होने के कारण तीर्थ की स्थापना न हो सकी । तीर्थंकर का कोई उपदेश बेकार नहीं जाता। हर उपदेश में कोई व्रत ग्रहण करता है। पर यह उपदेश बेकार गया किसी ने नियम व्रत ग्रहण नहीं किये। यह भी तीर्थंकर महावीर के जीवन का (अच्छेरा) अचम्भा था। इस प्रकार प्रभु महावीर अब अंतिम तीर्थंकर महावीर बन गये । केवली अवस्था का सुन्दर चित्रण उत्तर भारत प्रवर्त्तक भण्डारी श्री पद्मचन्द जी म. के शिष्य उपप्रवर्त्तक पूज्य श्री अमर मुनि तीर्थंकर चरित्र के पृष्ठ १५७ पर इस प्रकार किया है सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only १०७ www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy