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________________ (१८) फिर उसने कालचक्र चलाया। महावीर घुटने तक भूमि में धंस गये। किंतु फिरभी ध्यान भंग नहीं हुआ। अब संगम ने देखा कि प्रतिकूल परीषह तो प्रभु महावीर को नहीं गिरा सके। अब उसने अनुकूल परीषह उपस्थित किये। (१९) उसने सर्वप्रथम एक देव विमान की रचना की। उसमें स्वयं बैठकर वह प्रभु महावीर के पास आकर कहने लगा-"आपको स्वर्ग चाहिये या अपवर्ग। मैं आपकी हर इच्छा पूरी करूँगा। आप मेरे साथ विमान में बैठिए।" (२०) उसने अन्तिम उपसर्ग दिया-अप्सराओं का प्रलोभन। इंसान की कमजोरी है स्त्री। स्त्रियों के हावभाव साधक को साधना से गिरा देते हैं। इन स्वर्ग की अप्सराओं ने पहले सुन्दर नृत्य किये। भोग-विलास के साधनों की सुन्दर रचना की। प्रभु स्थिर रहे। प्रभु महावीर तो प्रभु महावीर थे। उनको गिराना तीर्थकर को गिराना था। तीर्थकर परमात्मा को गिराने की शक्ति किसी भी प्राणी में तीन लोक व तीन काल में नहीं होती। इन उपसर्गों का अध्ययन करने से हमें पता चलता है कि प्रभु अपनी देह के ममत्व से कितने दूर थे। वह विदेह थे। यहाँ आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. ने एक प्रश्न का समाधान निकालने की सुन्दर चेष्टा की है। प्रश्न उठ सकता है कि संगम ने अनेक रूप बनाकर प्रभु महावीर के शरीर को जर्जर और घावों से भर दिया, तो सारे घाव किस प्रकार मिटे? इस प्रश्न के उत्तर में वह लिखते हैं कि तीर्थकरों के शरीर में एक विशिष्ट प्रकार की संरोहण शक्ति होती है जिससे उनके शरीर का घाव उसी समय ठीक हो जाता है जब घाव बनता है। जैसे वृद्ध पुरुष का घाव भरने में समय लगता है। तरुण पुरुष का घाव शीघ्र-अतिशीघ्र भर जाता है। उसी तरह तीर्थकर परमात्मा के शरीर की रचना होती है।६८ बीस भंयकर उपसर्ग सहने पर भी उनके मुख पर गुस्से-भय का निशान नहीं था। उनका शरीर तो मुस्कराहट दे रहा था। मुख कुन्दन की तरह ऐसा चमक रहा था, जैसा मध्याह्न का सूर्य हो। संगम के कष्टों का यह अंत नहीं था। जिसकी शुरूआत उसने एक रात्रि में २० भयंकर उपसर्ग देकर की थी। प्रभु महावीर की आत्मा तो ध्यानस्थ थी। उनकी यात्रा तो अन्दर की यात्रा थी। बाहर से वह अपने शरीर का मोह छोड़ चुके थे। जब मोह ही छूट गया, तो फिर कोई शरीर आदि की सुरक्षा का ध्यान क्या रखेगा? शायद ये उपसर्ग उनकी साधना के फल की कसौटी थे। एक बात ध्यान रखनी चाहिये कि प्रभु महावीर राजकुमार थे। उनका शरीर बहत कोमल था। रूप सुन्दर था। पर आत्मा से वह अभय थे। डरना उनका स्वभाव नहीं था। शायद इसी स्वभाव के कारण उनका शरीर इतने कष्ट सहने में सक्षम हो सका। इन उपसर्गों के अध्ययन करने से पता चलता है कि संगम ने ज्यादातर प्रतिकूल ही कष्ट दिये।२-३ उपसर्ग अनुकूल कहे जा सकते थे जिससे शरीर को कष्ट न पहुँचा हो। पर प्रभु महावीर को शरीर से ज्यादा आत्मा की चिंता थी। आत्मचिंतन में डूबे रहने के कारण उन्हें कोई स्वर्ग का प्रलोभन गिरा न पाया। इस प्रकार रात्रि व्यतीत हो गई। सर्योदय होते ही प्रभ महावीर का जब ध्यान सम्पन्न हो गया तो उनोंने आगे की ओर बढ़ना शुरू किया। इतनी परीक्षा लेने के बाद भी संगम प्रभु के साथ ही था। उसे अपने देवत्व की शक्तियों के बेकार जाने का दुःख था। प्रभु महावीर को पथ से गिराने के लिये वह भी प्रभु के साथ हो लिया। __ प्रभु बालुका (नालुका), सुभोग, सुच्छेत्ता, मलय और हस्तिशीर्ष आदि नगरों में जहाँ भी पधारे, संगम कष्ट देता रहा। वह अपने अभद्र व्यवहार से प्रभु महावीर को कष्ट पहुँचाता रहा।६९ प्रभु महावीर धन्य थे। उनके चेहरे पर कोई थकान नहीं थी, कोई शिकायत नहीं थी। उनकी सरलता, सहजता, विनय में कोई कमी नहीं आई थी। उनके पाप तो सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र ८३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003697
Book TitleSachitra Bhagwan Mahavir Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Jain, Ravindra Jain
Publisher26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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