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भैरव प्रसंगों के बीच बहुत दिनों, पक्षों, महीनों, ऋतुओं, अयनों और वर्षों तक शान्ति और क्षमा को धारण कर निर्भीक होकर विचरण करो। तुम्हारी धर्म-साधना निर्विघ्न हो।"
सूत्र ११३ में आगे इस दीक्षा की शोभा-यात्रा की भव्यता वर्णित करते हुए कहा है कि ऐसी ऐश्वर्यशाली धर्म-यात्रा सहित, श्रमण भगवान महावीर कुण्डपुर नगर में से होते हुए ज्ञातखण्डवन नामक उद्यान में, जहाँ अशोक वृक्ष था, वहाँ पहुँचे।
भगवान की पालकी को अशोक वृक्ष के नीचे रखा गया। प्रभु पालकी के नीचे उतरे। उन्होंने अपने समस्त वस्त्र, आभूषण, माला, अलंकार आदि उतारे, फिर पंचमुष्टि लोच किया। उन्होंने छट्टम भत्त ग्रहण किया। उस दिन हस्तोत्तरा नक्षत्र का योग आने पर मात्र एक देवदूष्य धारण किये हुए गृहवास त्याग एक अनगार बन गये। सिद्धों को नमस्कार करके सामायिक चारित्र ग्रहण किया।
शक्रेन्द्र ने प्रभु के केशों को ग्रहण किया और इन केशों को क्षीर सागर में प्रवाहित किया। कई ग्रन्थों में वस्त्र, आभूषण, कुल महत्तरा लेती है और प्रभु को संयम जीवन पालने की प्रेरणा देती है। कई ग्रन्थों में ये वस्तुएँ शक्रेन्द्र ग्रहण करता है। इन वस्तुओं को ग्रहण करने के बारे में विभिन्न मान्यताएँ हैं। दीक्षा लेते ही प्रभु को चौथा मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया जिसके प्रभाव से वे ढाई द्वीप और दो समुद्र तक समनस्क प्राणियों के मनोगत भावों को जानने लगे।'
भगवान महावीर ने देवेन्द्र द्वारा प्रदत्त देवदष्य वस्त्र को अपना जिन आचार समझकर वाम स्कन्ध पर धारण किया।
आचारांग, कल्पसूत्र, आवश्यकसूत्र सभी में देवदूष्य वस्त्र का उल्लेख है। दिगम्बर परम्परा में देवदूष्य वस्त्र का कोई उल्लेख नहीं मिलता। इसका कारण यह है कि वस्त्र को वहाँ परिग्रह की श्रेणी में रखा गया है।
इस प्रकार का व्रत ग्रहण करने के बाद प्रभु ने एक अभिग्रह और किया जिसका वर्णन आचारांगसूत्र में मिलता है। यह उल्लेख कल्पसूत्र में नहीं मिलता है।
आज से साढ़े बारह वर्ष पर्यंत जब तक केवलज्ञान उत्पन्न न हो, तब तक मैं देह की ममता को छोड़कर रहूँगा। इस बीच देव, मानव व तिर्यंच जीवों की ओर से जो उपसर्ग होंगे उनका समभावपूर्वक सहन करूँगा।३
विशेषाक भाष्य में तो प्रभु ने कहा-“आज से सब पाप मेरे लिए अकरणीय-न करने योग्य हैं।" __ संसार के इतिहास के अन्दर जिस जर, जोरू, जमीन के लिए संघर्ष होते रहे हैं, उन तीनों को भगवान महावीर ने सहर्ष ठोकर मार दी। संसार में इसी कारण महावीर के समान दूसरा आदर्श पुरुष मिलना दुर्लभ है। उनका जीवन असिधारा पर चलने-जैसा था।
सांसारिक दृष्टि से देखा जाये, तो तीस वर्ष की आयु क्या होती है ? खाने, पीने, मजा करने की उमर होती है। पर वर्द्धमान को महावीर बनना था। उन्हें इन वस्तुओं में नाम मात्र की भी आसक्ति नहीं थी।
इसी आयु में उन्होंने परिवार व राज्य-सुख छोड़ा। दृढ़ संकल्प कर साधना के कठोर मार्ग पर कदम बढ़ाया।
१. (क) आयारो तह आयार चूला २/१५/३३ (ख) महावीर चरियं ४/८, पृष्ठ १ २. आवश्यकचूर्णि, पृष्ठ १६८ ३. आयारो २/१५/३४
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सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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