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दीक्षा-कल्याणक
तीर्थंकर के जीवन में जो पंच-कल्याणक होते हैं उनमें तीसरा है दीक्षा-कल्याणक। यह दीक्षा-कल्याण आचारांग व कल्पसूत्र में बड़े मार्मिक ढंग से उल्लिखित है। ___ भगवान ने ३० वर्ष पूर्ण होने पर भरी तरुणाई में संसार-त्याग का प्रस्ताव बड़े भ्राता नन्दीवर्द्धन व चाचा' सुपार्श्व के समक्ष रखा। इस बार किसी ने प्रतिरोध नहीं किया। वह वर्द्धमान के स्वभाव से भलीभाँति परिचित थे।
आचारांगसूत्र में कहा गया है__ “अभिनिष्क्रमण की बात जानकर भवनपति, बाणव्यन्तर, ज्योतिष और वैमानिक देव-देवियाँ अपनी देव-सम्पदा के साथ क्षत्रिय कुण्डग्राम में आये। उन्होंने वैक्रिय शक्ति से सिंहासन की रचना की। सभी ने प्रभु महावीर को पूर्वाभिमुख बैठाया। फिर शतपाक व सस्रपाक तेल की मालिश कर स्वच्छ जल से स्नान करवाया। गंध कषाय वस्त्र से शरीर को पोंछा, फिर गोशीर्ष चन्दन का लेप किया। अल्प भार वाले और बहुमूल्य वस्त्र व आभूषण पहनाये।"
इन कार्य से निवृत्त हो वह सुविस्तृत, सुसज्जित चन्द्रप्रभा नामक शिविका में आरूढ़ हुए। मनुष्यों, इन्द्र व देवों ने मिलकर उस शिविका को उठाया। राजा नन्दीवर्द्धन गजारूढ़ होकर अपनी चतुरंगी सेना के पीछे-पीछे चल रहे थे।
(आचारांग २/१५/२७-२९) कल्पसूत्र में इस दृश्य को इस तरह चित्रित किया गया है
"श्रमण भगवान महावीर मानव के रूप में गृहस्थ धर्म में प्रवेश से पहले ही अनुत्तर हैं। इन्द्रियातीत अप्रतिहत ज्ञान और दर्शन के धारक हैं।"
"जब उन्होंने अपने ज्ञान से यह जाना कि उनके अभिनिष्क्रमण का समय आ गया है, तब उन्होंने चाँदी, सोना, धन, राज्य, राष्ट्र, सेना, वाहन, कोष, कोषागार, पुर, अन्तःपुर, जनपद आदि सभी सांसारिक वस्तुओं का त्याग कर दिया। उन्होंने अपने अधिकार में रहे विपुल धन, सोना, रत्न, मणि, मोती, शंख, शिला, मूंगा, माणक आदि सभी समृद्धि सूचक पदार्थों को अपने सम्बन्धियों में बाँट दिया और याचकों को दान में दे दिया।" ।
"हेमन्त ऋतु के प्रथम महीने का पहला पक्ष चल रहा था-मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी के दिन छाया पूर्व की ओर ढलने लगी थी और प्रमाणोपेत पौरुषी आ गई थी। उस समय सुव्रत दिवस था, विजय मुहूर्त में श्रमण भगवान महावीर को चन्द्रप्रभा पालकी पर पूर्व दिशा की ओर बैठाया गया। पालकी के पीछे देव, मानव और असुरों के समूह चल रहे थे। उस दीक्षा महोत्सव यात्रा में आगे कितने ही जन शंख बजाते हुए, चक्र लिए हुए, मुख माण्डलिक (विरुदावली बोलने वाले), वर्द्धमानक (कंधों पर बैठाने वाले), मंगल पाठक और घण्टा बजाने वाले चल रहे थे। दर्शक लोग इष्ट, मधुर, मन आह्लादित करने वाली वाणी में भगवान का अभिनन्दन और उनकी स्तुति करने लगे___ “हे नन्द ! तुम्हारी जय हो ! जय हो ! तुम्हारी जय हो, जय हो। तुम्हारा कल्याण हो। निर्मल ज्ञान, दर्शन, चारित्र द्वारा नहीं जीती हुई इन्द्रियों को जीतो और श्रमणधर्म का पालन करो।"
__“हे देव ! बाधाओं पर विजय प्राप्त कर तुम मोक्ष की स्थिति में विचरण करो। तप से राग-द्वेषरूपी मल्लों का नाश करो। धैर्य रूप सुदृढ़ कच्छ बाँधकर, श्रेष्ठ शुक्ल छाया से आठ कर्म शत्रुओं का मर्दन करो। हे वीर ! अद्भुत बनकर त्रिलोक में रंग मण्डप पर आराधना की विजय ध्वजा फहराओ। अंधकार से परे अनुत्तर और श्रेष्ठ केवलज्ञान को प्राप्त करो। परीषहों की सेना का नाश करो। हे क्षत्रियों में श्रेष्ठ नरपुंगव ! तुम्हारी जय-जय हो। परीषहों, उपसर्गों और भय
सचित्र भगवान महावीर जीवन चरित्र
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