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________________ ६८ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म उसका साधन होता है, अर्थात् ज्यों-ज्यों पदार्थों की श्रद्धा, ज्ञ ेय पदार्थों का यथार्थ बोध, हेय पदार्थों का त्याग और उपादेय पदार्थों का आदर होता है, त्यों-त्यों आत्मा का स्वभाव में विशेष - विशेष परिणमन होता रहता है । इस प्रकार निश्चय - सापेक्ष व्यवहार का पालन क्रमशः मोक्ष का शाश्वत सुख उपहारस्वरूप प्रदान करता है । इस सापेक्ष दृष्टि से आराधना में ओत-प्रोत होने की अपूर्व कला प्राप्त करके जीवन में निश्चय एवं व्यवहार का सुमेल करने के लिए यथासंभव प्रयत्न करना ही समस्त मुमुक्षु आत्माओं का प्राप्त कर्तव्य है । कोई भी योग प्रीति, भक्ति, वचन एवं असंग अनुष्ठानमय हो तो ही वह मोक्ष-साधक होता है । नमस्कार भी उपर्युक्त चारों अनुष्ठान-स्वरूप है जो इस प्रकार है कायिक नमस्कार - करबद्ध शीश झुकाकर किया जाने वाला नमस्कार । वाचिक नमस्कार - पंच परमेष्ठियों के गुणों की स्तुति । मानसिक नमस्कार - मन ही मन पंच परमेष्ठियों के प्रति उत्पन्न होता आदर भाव । इस प्रकार तीनों योगों की एकाग्रतापूर्वक नमस्कार करने से साधक के हृदय में पंच परमेष्ठियों के प्रति परम भक्ति प्रोति उत्पन्न होती है और ज्यों-ज्यों इस भक्ति-प्रीति का विकास होता रहता है, त्यों-त्यों परमेष्ठियों के वचनों के प्रति अर्थात् उनके द्वारा बताये गये "आगमों" के प्रति विशेष सम्मान भाव उत्पन्न होता रहता है, जिससे शास्त्रोक्त विधिपूर्वक अनुष्ठान करने की प्रेरणा जागृत होती है, तब नमस्कार " वचन अनुष्ठान" की कोटि में अर्थात् शास्त्र योग की कोटि में आता है । सामायिक उस नमस्कार का फल है । जो प्रीति एवं भक्ति परमेष्ठियों के प्रति थी वह सामायिक प्राप्त होने पर उनके वचनों के प्रति अर्थात् जिनागम को जिनस्वरूप मानकर उनके प्रति भी उतना ही प्रेम एवं सम्मान होता है, तत्पश्चात् सावद्ययोग के परिहार एवं निरवद्य योग के सेवन से आत्म-परिणति निर्मल, निर्मलतर होने से जब पंच परमेष्ठियों के साथ एकता स्थापित होती है, तब साधक को अपनी आत्मा भी परमेष्ठी तुल्य प्रतीत होती है, जिससे उसके प्रति भी उतना ही पूज्य भाव उत्पन्न होता है । इस स्थिति में नमस्कार असंग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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