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सामायिक सूत्र एवं रहस्यार्थ
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अनुष्ठान स्वरूप हो जाता है जिसे सामर्थ्य योग का नमस्कार भी कहा जाता है । ऐसा एक ही नमस्कार जीव को संसार सागर से पार लगाने में समर्थ है ।
नमस्कार समस्त श्रुतस्कन्ध में अभ्यन्तरभूत है अर्थात् व्यापक है, जिसका कारण यही है कि "नमस्कार" भक्तिस्वरूप है । पंच परमेष्ठियों की सेवा, भक्ति से आत्म शुद्धि प्रकट होती है ।
नमस्कार का फल -
अरिहंत -नमुक्का, जीवं मोएइ भवसहस्साओ । भावेण कीरमाणो, होइ पुण बोहिलाभाए ॥
इस गाथा में नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव नमस्कार ग्रहण किया गया है, जो इस प्रकार है
(१) "नमोक्कार" से नाम नमस्कार ग्रहण किया हुआ है ।
(२) "अरिहंत" शब्द से बुद्धिस्थित अरिहंत के आकार वाली स्थापना का ग्रहण है ।
(३) " कीरमाणो " अंजलि पूर्वक किया जाने वाला द्रव्य नमस्कार है । (४) "भावेण" पद से भाव नमस्कार का ग्रहण है ।
इन चारों प्रकार से किया जाने वाला नमस्कार जीव को अनन्त भव- भ्रमण से मुक्त कराता है । 'उसी भव में मुक्त कराता है अथवा भावना (उपयोग ) विशेष से किया जाने वाला नमस्कार अनन्य जन्मों में बोधिसम्यग्दर्शन आदि अवश्य प्राप्त कराके क्रमशः अल्प समय में ही मुक्ति प्रदान करता है । संसार-क्षय के लिए तत्पर बने धन्य पुरुषों के हृदय में सतत निवास करता नमस्कार प्राणियों को कुमार्ग से एवं दुर्ध्यान से भी रोकता है । "
जिनशासन में एक वाक्य को भी, यदि उक्त वाक्य संवेग उत्पन्न करने वाला हो तो “प्रकृष्टज्ञान" के रूप में महत्व दिया गया है, क्योंकि ज्ञान उसे ही कहा जाता है जिससे वैराग्य प्राप्त होता है ।
अरिहंत भगवान को किया गया नमस्कार आठों प्रकार के कर्मों का
१ इक्कोवि नमुक्कारो जिनवर वसहस्स वद्धमाणस्स ।
संसार सागराओ तारेइ नरं व नारीं वा ॥
२ अरिहंत नमुक्कारो धण्णाणं
भवखयं करंताणं ।
हिययं अणम्मुयंतो विसोत्तिया वारओ होइ ॥
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