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सामायिकी व्यक्ति की संख्या आदि द्वार ५३ प्राप्त करके पतित हुए जीवों की विपुल संख्या का निर्देश करके शास्त्रकार महर्षि हमें गभित रूप से बता रहे हैं कि यह सामायिक जितनी व्यापक है, उतनी ही यह दुष्प्राप्य भी है और प्राप्त की हुई सामायिक को निरन्तर स्थायी रखना तो अत्यन्त ही दुष्कर कार्य है। सामायिक को प्राप्त करने वाले और प्राप्त किये हुए जीवों की अपेक्षा सामायिक से पतित हो चुके जीवों की अनन्त संख्या ही इस बात को सिद्ध करती है।
समस्त सामायिकों में सर्वविरति सामायिक विशुद्धतर है । आत्मसमाधि-स्वरूप इस सामायिक को ग्रहण करने वाले जीवों की संख्या अत्यन्त ही अल्प है। सर्वस्व त्याग स्वरूप प्रव्रज्या के पुनीत पथ पर प्रयाण करके पूर्ण आत्म-समाधि का अनुभव करने का भव्यातिभव्य पुरुषार्थ केवल मानव हो कर सकता है। मनुष्य सदा संख्याता ही होते हैं। उनमें भी "चारित्ररत्न" प्राप्त करने का परम सौभाग्य किसी विरले पुण्यात्मा के ही भाग्य में लिखा होता है। समस्त सावद्य-पाप व्यापारों का सर्वथा त्याग करने वाले, जीवमात्र को आत्मवत देखने वाले और परम समता रस के सुधा-पान में ही सदा मग्न रहने वाले महापुरुष ही अपने जीवन में पूर्ण चारित्र धर्म का साक्षात्कार करके अनेक व्यक्तियों के आदर्श बनते हैं ।
देशविरति सामायिक की प्राप्ति तिर्यंच भव में भी होती होने से उसे प्राप्त करने वाले जीव असंख्य होते हैं और सम्यक्त्व एवं श्रुत सामायिक को चारों गतियों के जीव प्राप्त कर सकते हैं। इस कारण इसके अधिकारी जीव सबकी अपेक्षा विशेष संख्या में होते हैं ।
अक्षरात्मक सामान्य श्रुत दोइन्द्रिय आदि मिथ्यादृष्टि जीवों में भी होते हैं। उसकी चेतना शक्ति सर्वथा अविकसित स्वरूप में है, फिर भी परम ज्ञानी महापुरुषों ने उन्हें भी सामायिक के विशाल दृष्टि-बिन्दू में समाविष्ट कर लिया है। इसके पीछे भी कुछ रहस्य छिपा हुआ है।
भाषा-लब्धि एवं अक्षरात्मक श्रुत के बिना एक भी सामायिक को प्रकट करना सम्भव नहीं है। यह रहस्य उपर्युक्त बात से ज्ञात किया जा सकता हैं।
अनादि निगोद अवस्था में से बाहर निकले जीवों को दोइन्द्रियत्व में भाषालब्धि और अक्षरात्मक श्रत की सर्वप्रथम प्राप्ति होती है। तत्पश्चात क्रमशः उनका विकास होते-होते जब संज्ञी पंचेन्द्रियत्व प्राप्त होता है तब उक्त अक्षरात्मक श्रुत ही किसी भव्यात्मा के लिये भाव-श्रुत की प्राप्ति का प्रेरक निमित्त बन जाता है ।
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