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________________ ५२ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म हैं (और इस स्व-स्थान में प्रतिपद्यमान की अपेक्षा संख्यात गुने होते हैं)। श्रुत (सामान्य अक्षरात्मक) के पूर्वप्रतिपन्न जीव वर्तमान समय मेंअसंख्याता प्रतर के असंख्य भाग में स्थित असंख्य श्रेणियों में जितने प्रदेश होते हैं उतने प्रमाण वाले होते हैं । जघन्य से उत्कृष्ट असंख्य गुने होते हैं। प्रश्न (३) पूर्व पतित-सामायिक प्राप्त करके पतित हो चुकेविवक्षित समय में कितने होते हैं ? उत्तर-सम्यक्त्व, देश विरति एवं सर्वविरति की अपेक्षा उन गुणों को प्राप्त करके पतित हए जोव अनन्त गूने होते हैं। श्रुत (सामान्य अक्षरात्मक) को प्राप्त एवं प्राप्त करने वालों की अपेक्षा शेष समस्त संसारी जीव सामान्य श्रुत से प्रतिपतित कहलाते हैं। क्योंकि इन प्रतिपतित जीवों ने अनादिकालीन इस संसार में परिभ्रमण करने से पूर्व अनेक बार भाषालब्धि को प्राप्त की हुई होती है। तीनों प्रकार के सामायिक वाले जीवों का अल्प-आधिक्य सर्वविरति सामायिक को प्राप्त करने वाले सबसे कम होते हैं। इनकी अपेक्षा सर्वविरति प्राप्त किये हुए संख्यात गुने होते हैं। देशविरति सामायिक को प्राप्त करने वाले जीव सर्वविरति प्राप्त करने वालों को अपेक्षा असंख्य गुने होते हैं और उनकी अपेक्षा देशविरति को प्राप्त किये हुए असंख्य गुने होते हैं। सम्यक्त्व सामायिक को प्राप्त करने वाले जीव देशविरति को प्राप्त करने वालों की अपेक्षा असंख्य गुने होते हैं। इनकी अपेक्षा सम्यक्त्व को प्राप्त किये हुए जीव असंख्य गुने होते हैं। सामान्य श्रुत को प्राप्त करने वाले जीव सम्यक्त्व, देशविरति इन दोनों के प्रतिपद्यमान की अपेक्षा असंख्य गुने होते हैं और इनकी अपेक्षा सामान्य श्रुत को प्राप्त किये हुए जीव असंख्य गुने होते हैं। सामायिकी जीवों की जघन्य-उत्कृष्ट संख्या की विशेषता ये पतित जीव स्व-स्थान में जघन्य पद से उत्कृष्ट पद में विशेष अधिक संख्या में होते हैं। पूर्वप्रतिपन्न में स्व-स्थान में जघन्य पद से उत्कृष्ट पद में विशेष अधिक संख्या में होते हैं। प्रतिपद्यमान में आद्य तीन सामायिक स्व-स्थान में जघन्य से उत्कृष्ट पद में असंख्य गुनी होती हैं और सर्व विरति सामायिक स्वस्थान में जघन्य से उत्कृष्ट पद में संख्यात गुनी होती हैं । प्रस्तुत द्वार में सामायिक को प्राप्त करने वालों, प्राप्त किये हुओं और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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