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________________ ५४ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म - इस विशाल दृष्टि से ही ज्ञानी भगवन्तों ने पूर्व प्राप्त सामान्य श्रुत की विवक्षा करके अक्षरात्मक-श्रुत को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया प्रतीत होता है। एक-एक से विशिष्ट, विशिष्टतर समाधिस्वरूप इन चारों सामायिकों को प्राप्त कर चुके व्यक्ति भी बहुत अधिक संख्या में कर्म की प्रबलता आदि के कारण समाधि के उच्च शिखर से गिरकर असमाधि की गहरी खाई में जा गिरते हैं। सामायिक प्राप्त करने वालों और प्राप्त कर चुके व्यक्तियों से सामायिक के भ्रष्ट व्यक्तियों की संख्या अधिक क्यों है ? यह प्रश्न ही सहज समताभाव की दुर्लभता एवं दुष्प्राप्यता को तथा विभाव-जनित ममताभाव की दुष्टता एवं दारुण ता को स्पष्ट कर देता है। - कितनी दुर्लभ है आत्मसमाधिस्वरूप सामायिक धर्म की प्राप्ति ? और कितनी दुःसाध्य है प्राप्त सामायिक की स्थिरता एवं वृद्धि ? जीवन के अन्तिम क्षण तक निरन्तर चलता चारित्रधर्म का सूविशुद्ध भाव जन्मान्तर में साथ नहीं आ सकता। अप्रमत्त मुनि को भी अन्य भव में जाने के समय चारित्रधर्म का वियोग अवश्यमेव सहना पड़ता है। ___ सम्यक्त्व एवं श्रुत सामायिक की भी उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक छासठ सागरोपम की है। इस समय के अन्तर्गत यदि आत्मा की मुक्ति नहीं हुई तो उक्त सामायिक भाव भी समाप्त हो जाता है । सामान्य श्रुत की भी अधिक से अधिक स्थिति दो हजार सागरोपम की है । तत्पश्चात् वह भी अवश्य ही समाप्त हो जाती है। इन सब असंख्य एवं अनन्त सामायिक से परिभ्रष्ट हए जीवों का निवास और उत्कृष्ट अर्द्ध पुद्गल परावर्तन जितने दीर्घकाल का निर्गमन प्रायः निगोद अवस्था में होता है। इसके अतिरिक्त इन संख्यातीत जीवों का निवास अन्य किसी "काया" में होना सम्भव नहीं है । कर्म को अकल गति, स्थिति एवं मति का यह प्रत्यक्ष चित्रण सुनकर जिस मुमुक्ष की आत्मा चीत्कार कर उठती है. वह तो पल भर भी प्रमाद किये बिना निरन्तर सावधानी एवं जागृति से सम्पूर्ण सामायिक भाव को यथावत् रखने के लिये पुरुषार्थ करती रहती है। सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा की सहज अवस्था प्राप्त नहीं हो तब तक सामायिक धर्म की वसमी विरह-वेदना के शिकार न हो जायें उसी चरम एवं परम लक्ष्य को दृष्टिगत रखकर मुमुक्षु साधक आत्म-साधना के पथ पर एक ही सांस में तनिक न रुककर अग्रसर होता ही रहता है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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