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सामायिक की स्थिति ४६ इन दोनों प्राप्त सामायिकों की छासठ सागरोपम प्रमाण जो उत्कृष्ट स्थिति ऊपर बताई गई है, वह संसारी जीव को लब्धि (सत्तागत) सामायिक पर निर्भर रहकर जाननी चाहिए। तात्पर्य यह है कि सामायिक अधिक से अधिक छासठ सागरोपम प्रमाणकाल तक ही स्थायी रह सकती है । तत्पश्चात् उक्त सामायिक अथवा तो मोक्ष प्रदान कराती है अथवा उसका पतन हो जाता है।
उपयोग की अपेक्षा से प्रत्येक सामायिक की अन्तर्मुहूर्त से अधिक स्थिति नहीं है और कम से कम स्थिति-मर्यादा आद्य तीन सामायिकों की अन्तर्मुहूर्त की एवं सर्वविरति की एक समय की ही बताई है।
इन समस्त बातों का विचार करने पर समझ में आयेगा कि विशुद्ध श्रद्धा एवं समता का परिणाम प्राप्त होना कितना दुर्लभ है और प्राप्त परिणाम स्थायी रखना कितना कठिन है ? अनन्त काल से लिपटी हुई यह राग-द्वेषरूप विभाव-दशा आत्मा की कैसी भयानक दुर्दशा करती है, कैसी विकटता करती है उसकी कथा तो अत्यन्त ही दयनीय एवं करुणापूर्ण है।
विभाव-दशा की कालिमा-युक्त अंधेरी रात में उलझा हुआ जीवात्मा अपने सच्चिदानन्द स्वरूप का भान भूलकर पर-पुद्गल पदार्थों एवं उनके संयोगों में 'अहं' एवं "मैं पन" लाकर अपने हाथों अपने प्रयत्न से हो वह परेशान हो रहा है।
___अरे ! अन्तर् के कक्ष में दबा हुआ सुख, शान्ति एवं गुण सम्पत्ति का अपार भण्डार लुटा रहा है । इस पराधीन बनी पामर आत्मा को कौन समझाये कि
तू अनन्त सुख-शक्ति का मुकुट-विहीन सम्राट है, और तेरा मान्य किया हुआ यह बाह्य संसार तुझे सुख-शान्ति प्रदान करने के लिए सर्वथा विवश है, असफल है।
सुख, शान्ति एवं आनन्द का अक्षय निधि आत्मा के भीतर में ही अप्रकट रूप से विद्यमान है, जिसे प्रकट करने वाला केवल सामायिक धर्म
उक्त धर्म को सम्पूर्ण आराधना करके उसके वास्तविक फल का पूर्ण अधिकार प्राप्त करने वाला मानव ही है। मानव-जीवन का विशिष्ट महत्व अथवा मूल्यांकन आध्यात्मिकता के कारण ही है। संसार की
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