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________________ २० सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म रहित होते हैं, वे जीव सामायिक प्राप्त करते हैं, जिस प्रकार अज्ञानी लोग ज्ञान प्राप्त करते हैं। जैन दर्शन स्गद्वादमय है, जिसमें समस्त नयों का सापेक्षता से विचार किया जाता है। यहाँ सातों नयों का दो नयों में समावेश करके उनके अभिप्राय के अनुसार सामायिक को घटित किया गया है। विशेष चर्चा 'विशेषावश्यक' से ज्ञात कर लें। (९-१०) आहारक द्वार और पर्याप्तक द्वार-आहारक अर्थात् ओज, लोम और कवल आहार करने वाले । पर्याप्तक अर्थात् आहार आदि छःओं स्व-योग्य पर्याप्नि पूर्ण करने वाले । ये दोनों प्रकार के जीव चार में से कोई भी सामायिक प्राप्त कर सकते हैं तथा 'पूर्वप्रतिपन्न' नियमा होती है। अनाहारक एवं अपर्याप्त जीव अपान्तराल गति में सम्यक्त्व एवं श्रुत के पूर्व प्रतिपन्न हो सकते हैं, परन्तु नवीन सामायिक नहीं प्राप्त कर सकते। अणाहारी शैलेशी अवस्था में और केवली समुद्घात के समय सम्यक्त्व और चारित्र के पूर्व प्रतिपन्न हो सकते हैं । (११) सुप्त-जागृत द्वार-दोनों के दो-दो भेद किये जा सकते हैंद्रव्य एवं भाव। (१) द्रव्य सूप्त-नींद लेता हो वह और (२) भाव सुप्त मिथ्यादृष्टि; ये दोनों एक भी नवीन सामायिक प्राप्त नहीं कर सकते क्योंकि इस अवस्था में उसके समान विशुद्धि नहीं होती। (२) द्रव्य जागृत-निद्रा रहित और (२) भाव जागृत-सम्यग्दृष्टि; ये दोनों नवीन सामायिक प्राप्त कर सकते हैं तथा चारों सामायिकों के वे पूर्वप्रतिपन्न तो होते हैं। निन्दरड़ी वैरण हुई रही'-यह उक्ति अत्यन्त रहस्यपूर्ण है। निद्रावस्था में भी वास्तविक गुण की प्राप्ति नहीं हो सकती। प्राप्त ज्ञान आदि गुण भी उस समय के लिये तो विसरा जाते हैं। नींद 'घाती' प्रकृति है। यह आत्मा के मूल गुणों का घात करती है। यह तो हई द्रव्य निद्रा की बात । भाव निद्रा तो इससे बहुत अधिक भयंकर है; मिथ्यात्व अवस्था में जीव असार को सार, असत्य को सत्य और अनात्मा को आत्मा मानने के भयंकर भ्रम का शिकार होता है, जिसके कारण आत्मा दुर्गति की गहरी खाई में जा गिरती है, असह्य यातनाओं एवं वेदनाओं से पीड़ित होती है और अपना भव-प्रवास अत्यन्त ही दीर्घ बना देती है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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