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________________ सामायिक की विशालता आश्रित होकर असंज्ञो जीव सम्यक्त्व और श्रुत सामायिक के पूर्वप्रतिपन्न हो सकते हैं तथा भवस्थ केवली (नोसंज्ञी नो असंज्ञी) सम्यक्त्व और चारित्र के पूर्वप्रतिपन्न हो सकते हैं । सिद्धों में सम्यक्त्व सामायिक पूर्वप्रतिपन्न हो सकती है, परन्तु उसकी विवक्षा यहाँ अपेक्षित नहीं है । सामायिक की प्राप्ति भव्य आत्मा को ही हो सकती है, वह भी संज्ञी पंचेन्द्रिय अवस्था में ही हो सकती है । अभव्य जीव तो सामायिक भाव का कदापि स्पर्श भी नहीं कर सकते । यद्यपि द्रव्य से श्रुत सामायिक उन्हें भी प्राप्त हो सकती है, परन्तु सम्यक्त्व का सहचारी भाव श्रुत तो उनके लिये सम्भव ही नहीं है । १६ इससे ज्ञात होता है कि सम्यक्त्व की प्राप्ति से पूर्व नौ पूर्व के अभ्यासी भव्य जीव का श्रुत भी द्रव्य श्रुत ही है । (७) उश्वास - निश्वास द्वार - श्वासोश्वास पर्याप्ति से पूर्ण बना जीव चारों सामायिक प्राप्त कर सकता है तथा चारों सामायिकों के पूर्व प्रतिपन्न भी होते हैं, परन्तु आनपान पर्याप्ति-अपर्याप्ति जीव चार में से एक भी सामायिक नहीं प्राप्त कर सकते; देव आदि जन्म के समय सम्यक्त्व और श्रुत सामायिक के पूर्वप्रतिपन्न हो सकते हैं । सिद्धों में पूर्ववत् चारों सामायिक दोनों प्रकार से नहीं होती, अथवा अयोगी केवली सम्यक्त्व एवं चारित्र के पूर्वप्रतिपन्न होते हैं । 'प्राणायाम' श्वासोश्वास निरोध की एक प्रक्रिया है । योग के आठ अंगों में उसका चौथा स्थान है । प्रस्तुत सामायिक में भाव प्राणायाम (बहिरात्म दशा का त्याग आदि) की प्रधानता है । इस कारण ही बाह्य प्राण के निरोध के बिना भी चारों सामायिकों की प्राप्ति का विधान किया गया है । बाह्य श्वासोश्वास निरोध के बिना भी सम्यक्त्व एवं चारित्र की उपस्थिति हो सकता है, क्योंकि वे दोनों जीव के 'भाव प्राण' हैं । चारों सामायिक 'भाव - प्राणायाम' स्वरूप हैं | (८) दृष्टि द्वार - दृष्टि के दो प्रकार हैं - ( १ ) निश्चय दृष्टि और (२) व्यवहार दृष्टि | (१) निश्चय दृष्टि क्रिया- काल एवं निष्ठा काल को एक मानती है । इसके मत से सामायिक वाला जीव सामायिक प्राप्त करता है । (२) व्यवहार दृष्टि की मान्यता है कि क्रिया के प्रारम्भ के पश्चात कार्य की समाप्ति दीर्घ काल में होता है । अतः जो जीव पहले सामायिक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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