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________________ सर्वज्ञ कथित: परम सामायिक धर्म सर्वविरति सामायिक तीसरे, चौथे और पाँचवे आरे में ही हो सकती हैं । महाविदेह क्षेत्र में तो चारों सामायिक सदा होती हैं । देवताओं आदि के संहरण की अपेक्षा से चारों सामायिक समस्त कालों में हो सकती हैं, तथा 'पूर्वप्रतिपन्न' भो महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा से सर्वदा होती है । १८ आदि की व्यवस्था नहीं है ऐसे ढाई द्वीपों के अतिरिक्त द्वीप समुद्रों में भी आद्य तीन सामायिक मछलियाँ आदि जीव प्राप्त कर सकते हैं । ( ४ ) गतिद्वार - चारों गतियाँ (देव, मनुष्य, तिर्यंच एवं नरक) में सम्यक्त्व एवं श्रुत इन दो सामायिकों की प्राप्ति हो सकती है और पूर्व प्रतिपन्न' तो अवश्य होती है । देशविरति सामायिक मनुष्य तथा तिर्यंच गति में ही प्राप्त होती हैं, 'पूर्वप्रतिपन्न' सदा होती ही है । सर्वविरति सामायिक केवल मनुष्य गति में प्राप्त होती है, 'पूर्वप्रतिपन्न' तो सदा होती ही है । उपर्युक्त चारों द्वारों में किये गये विचार से समझा जा सकता है कि समस्त क्षेत्रों तथा समस्त कालों में सामायिक अवश्य विद्यमान होती है, अर्थात् तीनों लोकों और तीनों कालों में सामायिक वाले जीव होते हैं, तथा चारों गतियों के जीव 'सामायिक' प्राप्त कर सकते हैं और अपने जीवन में उसका अभ्यास करते-करते अनेक जीव सम्यक्त्व एवं श्रुत सामायिक को जन्मान्तर में साथ ले जाते हैं। मनुष्य-भव प्राप्त वे जीव; गुरु के उपदेश आदि के द्वारा पूर्वाभ्यस्त संस्कार जागृत होने पर देशविरति एवं सर्वविरति चारित्र प्राप्त करते हैं और उसके सुविशुद्ध परिपालन से पूर्ण सामायिक को प्राप्त करके वे सिद्धि गति को प्राप्त करते हैं, सदा के लिये सामायिक भाव में स्थिर रहते हैं अर्थात् वे स्वयं सामायिक स्वरूप हो जाते हैं । ( ५-६ ) भव्यद्वार एवं संतीद्वार (१) प्रतिपद्यमान भव्य आत्मा चार में से कोई भी सामायिक प्राप्त कर सकते हैं । वे कभी सम्यक्त्व सामायिक, कभी श्रुत सामायिक, कभी देशविरति सामायिक तो कभी सर्वविरति सामायिक भी प्राप्त कर सकते हैं; संज्ञी जीव भी इसी प्रकार से चारों सामायिक प्राप्त कर सकते हैं । (२) पूर्वप्रतिपन्न - अनेक भव्य जीव तथा संज्ञी जीव चारों सामायिक प्राप्त किये हुए होते ही हैं। अभव्य, असंज्ञी और सिद्ध जीव किसी भी सामायिक के प्रतिपद्यमान अथवा पूर्वप्रतिपन्न नहीं होते । सास्वादन के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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