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सामायिक का महत्त्व ३ बिन्दुसार (चौदहवें पूर्व) तक श्रुतज्ञान है । उक्त श्रुतज्ञान का सार चारित्र (सामायिक) है और चारित्र का सार निर्वाण-मोक्ष सुख है।'
__इस प्रकार “सामायिक धर्म" प्रभु का प्रमुख उपदेश होने से प्रथम उस विषय में ही विचार करेंगे।
“सामायिक" आवश्यक का मूल है, जिन-शासन का प्रधान अंग है। अत्यन्त अद्भुत है इसका प्रभाव एवं प्रताप ! शमन हो जाते हैं इससे आधि, व्याधि एवं उपाधि के समस्त ताप एवं सन्ताप !
सामायिक दिव्य ज्योति है, जो मोहान्धकार से व्याप्त इस विश्व में मोक्ष-मार्ग को प्रकाशित करती है, अज्ञानतिमिराच्छादित जीवों के मनमन्दिर में सम्यग्ज्ञान की ज्योति प्रसारित करती है।
सामायिक अकल्पीय चिन्तामणि है, अपूर्व कल्प-वृक्ष है, जिसके प्रभाव से साधक की साधना फलवती होती है और समस्त शुभ कामनाएँ पूर्ण होती हैं।
सामायिक सर्वत्रगामी चक्ष है। प्रशमरसमग्न मनि ज्ञान-चक्षओं के खुलने पर क्रमशः समस्त पदार्थों का ज्ञाता एवं द्रष्टा हो जाता है।
सामायिक परम मन्त्र है, जिसके प्रभाव से राग-द्वेष का मारक विष भी पल भर में उतर जाता है।
सामायिक जिनाज्ञा स्वरूप है।
आश्रव के सर्वथा त्याग एवं संवर के स्वीकार को जिनाज्ञा कहते हैं।
सामायिक के द्वारा समस्त पापों का परिहार एवं ज्ञान आदि सदनुष्ठानों का सेवन होता है। अतः उसमें समस्त आस्रवों का निरोध एवं सम्पूर्ण संवर भाव समाविष्ट है।
सामायिक जिनाज्ञा की तरह समस्त शास्त्रों एवं अनुष्ठानों में व्याप्त है।
१. सामायिक में रत्नत्रयी है, रत्नत्रयी में सामायिक है :श्रुत-सामायिक 'सम्यग्ज्ञान" स्वरूप है । सम्यक्त्व सामायिक "सम्यग्-दर्शन" स्वरूप है । चारित्र सामायिक "सम्यक्-चारित्र" स्वरूप है।
१ सामाइयमाईयं सुयनाणं जावं बिन्दुसाराओ।
तस्स वि सारं चरणं, सारो चरणस्स निव्वाणं ॥६३॥
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