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२ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म
इस प्रकार प्रत्येक आगम ग्रन्थ का मूल जिनेश्वर भगवान के उपदेश में निहित है । इस कारण ही तो आगम "जिनागम" कहलाते हैं और उन्हें जिनेश्वर भगवान की तरह ही पूजनीय एवं आदरणीय माना जाता है।
परमात्मा द्वारा उपदिष्ट मोक्ष-मार्ग युग-युगान्तर तक भव्य आत्माओं का आलम्बन-भूत बनकर संसार-तारक बना रहे और इस मोक्षमार्ग की आराधना अविच्छिन्न रूप से चलती रहे, ऐसो कल्याण कामना से ही गणधर भगवान प्रभु की वाणी को शब्द-देह प्रदान करते हैं, द्वादशाङ्गी की रचना करते हैं।
सूत्र-बद्ध आगम ग्रन्थों की महानता, गम्भीरता एवं गहनता को विशिष्ट प्रज्ञावान महापुरुषों के अतिरिक्त कोई भी नहीं नाप सकता। मन्द-बुद्धि व्यक्तियों का तो उसमें चंचु-पात होना भी असम्भव है, परन्तु विश्व मात्र की कल्याण-भावना से परिपूर्ण हृदय वाले महान उपकारी, महान् ज्ञानी, गीतार्थ महापुरुषों ने आगम ग्रन्थों के गुप्त रहस्यमय गम्भीर तथ्यों को स्पष्ट, स्पष्टतर एवं स्पष्ठतम करने के लिए इन आगम ग्रन्थों पर क्रमशः नियुक्ति, भाष्य, चूणि एवं वृत्ति आदि की विशद रचनाएँ की हैं, जिसका गीतार्थ सद्गुरुओं से अध्ययन, पठन एवं मनन करके मन्द-बुद्धि मुमुक्षु आत्मा भी आत्मिक उत्थान का मार्ग-दर्शन प्राप्त करके स्व-पर के आत्म-कल्याण की साधना करते-करते साध्य-सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं।
समस्त जिनागमों में "आवश्यक सूत्र" का स्थान-मान अग्रगण्य एवं अद्वितीय है, जिसमें चतुर्विध संघ के दैनिक कर्तव्यस्वरूप आवश्यक क्रिया का विशद निरूपण किया गया है । छः आवश्यक और उनमें प्रथम सामायिक
(१) सामायिक आवश्यक। (२) चतुविंशतिस्तव आवश्यक । (३) गुरु-वन्दन आवश्यक । (५) प्रतिक्रमण आवश्यक । (५) कायोत्सर्ग आवश्यक। (६) प्रत्याख्यान आवश्यक ।
केवल-ज्ञानी बनने के पश्चात् अरिहन्तों द्वारा स्व-मुख से भाषित तथा विचक्षण बुद्धिधारी गणधरों द्वारा भावी शासन के हितार्थ रचित श्रुत क्या है ? उसका उत्तर देते हुए कहा गया है कि सामायिक से लगाकर
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