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________________ ( १६ ) करके उसी सामायिक धर्म का उपदेश देते हैं। तीर्थ की स्थापना करने के पीछे भी सामायिक धर्म के दान का उदात्त उद्देश्य निहित है। जिससे तरा जाये-भवसागर पार किया जा सके-वह तीर्थ होता है। चतुर्विध संघरूप अथवा द्वादशांगीरूप तीर्थ की सेवा से ही “सामायिक धर्म" की प्राप्ति हो सकती है। सामायिक साध्य है तीर्थसेवा उसका साधन है । देव, गुरु एवं धर्म की सेवा (उपासना) तीर्थ की ही सेवा (उपासना) है। सामायिक के प्रतिज्ञासूत्र में अथवा उसकी साधनभूत अन्य प्रक्रियाओं में देव, गुरु और धर्म के निर्देश दिये गये हैं। सामायिक के अतिरिक्त शेष पाँचों आवश्यकों का विधान "सामायिक" की ही पुष्टि के लिये हैं। "चतुर्विंशतिस्तव" और "वन्दन आवश्यक" के द्वारा देवाधिदेव अरिहन्त परमात्मा और सद्गरु को स्तुति सेवा करने का निर्देश है। "प्रतिक्रमण' के द्वारा सामायिक धर्म की शुद्धि एवं "कायोत्सर्ग” तथा “प्रत्याख्यान आवश्यक" के द्वारा उसकी विशेष शुद्धि एवं पूष्टि होती है। परमार्थ से प्रत्येक सामायिक आदि आवश्यक शेष समस्त आवश्यकों के साथ संकलित हैं । एक एक आवश्यक में अन्य आवश्यक भी गौण भाव से समाविष्ट हैं । सामायिक सूत्र की रचना में गुम्फित शब्द ही यह रहस्य प्रकट करते हैं। . "करेमि भंते सामाइयं" ये शब्द “सामायिक' एवं "चउवीसत्थो" के सूचक हैं। "सावज्जं जोगं पच्चखामि" ये शब्द प्रत्याख्यान बताते हैं । "तस्स भंते" शब्द "गरुवन्दन" को सूचित करते हैं। "पडिक्कमामि, निदामि, गरिहामि" शब्द "प्रतिक्रमण" के बोधक हैं। "अप्पाणं वोसिरामि" पद "कायोत्सर्ग" को सूचित करता है। इस प्रकार सामायिक में छःओं आवश्यक विद्यमान हैं, अतः सामाजैनागम का-जैन शासन का-मूल है, द्वादशांगी का रहस्य है; भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, चारित्रयोग, ध्यानयोग, अष्टांगयोग तथा समापत्ति, समाधि अथवा हठयोग, राजयोग आदि समस्त योगसाधनाओं का उसमें समावेश है, जिससे “सामायिक" योगाधिराज है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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