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सुख विशिष्ट कोटि का होता है । स्वयंभूरमण समुद्र से स्पर्धा करने वाले समतारस में मग्न मुनि से उपमा दी जाये ऐसा कोई पदार्थ इस विश्व में नहीं है।
इस सामायिक में "सामर्थ्य योग" एवं असंग अनुष्ठान की प्रधानता होती है । “असंग अनुष्ठान" के सम्बन्ध में "ज्ञानसार" में भी कहा है कि -"वचन अनुष्ठान (शास्त्रोक्त क्रिया) के सतत सेवन से निर्विकल्प समाधिरूप असंग क्रिया की योग्यता प्रकट होती है और यह ज्ञान-क्रिया की अभेद भूमिका है, क्योंकि असंग भावरूप क्रिया शुद्ध उपयोग एवं शुद्ध वीर्योल्लास के साथ तादात्म्यता रखती है और वह आत्मा के सहज आनन्दरूप अमृत रस से आर्द्र होती है।
__इस सामायिक में रहे हए महामुनि ज्ञानामृत का पान करके, क्रियारूपी कल्पलता के मधुर फलों का भोजन करके और समता भाव रूपी ताम्बूल का आस्वादन करके परम तृप्ति का अनुभव करते हैं। सम्म सामायिक का लक्षण
सम्यकपरिणामरूप सम्म सामायिक का स्वरूप बताते हुए शास्त्रकार महर्षि कह रहे हैं कि-"समानां (मोक्षसाधन प्रति सदृश सामर्थ्यानां) सम्यगबर्शनज्ञानचारित्राणां आयः (लाभः) इति समायः तदेव सामायिकम् ।"
मोक्ष के साधक के रूप में समान सामर्थ्य रखने वाले सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र का लाभ “सामायिक" है । यहाँ रत्नत्रयी की एकता होने पर भी चारित्र की प्रधानता है। चारित्र की उपस्थिति में सम्यक्त्व एवं ज्ञान अवश्य होते हैं, परन्तु उसकी अनुपस्थिति में सम्यक्त्व एवं ज्ञान अल्प शक्तियुक्त होते हैं । चारित्र की प्राप्ति होते ही उन दोनों का सामर्थ्य प्रबल हो जाता है।
इस प्रकार साम, सम और सम्म परिणामरूप सामायिक में क्रमशः सम्यग्दर्शन, ज्ञान एवं चारित्ररूप रत्नत्रयी का समावेश है।
समन मोक्षमार्ग सामायिक रूप है" —यह बात इस प्रकार सिद्ध हो जाने से समस्त प्रकार की योग-साधनाओं, अध्यात्म साधनाओं अथवा मंत्र-जाप-ध्यान आदि विविध अनुष्ठानों का उसमें अन्तर्भाव हो चुका है, यह मानने में तनिक भी अत्युक्ति नहीं है ।
इस सर्वोत्तम सामायिकधर्म को स्वयं तीर्थंकर भगवान स्वीकार करते हैं और उसके सुविशुद्ध पालन से केवलज्ञान (सम्पूर्ण ज्ञान) प्राप्त
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