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________________ ( १७ ) उसी प्रकार से आत्मा में रत्नत्रयी का परस्पर एकीकरण हो जाना ही 'सम्म सामायिक' है। इस सामायिक में शान्ति-समता का अस्खलित प्रवाह होने लगता है, चन्दन की सुगन्ध की तरह समता आत्मसात् बन गई होती है। कहा भी है-"जिस मुनि को आत्मा के शुद्ध स्वरूप का दर्शन और विशेष ज्ञान हुआ है अर्थात्-"मेरी आत्मा भी अनन्त ज्ञान आदि गुणपर्याय से युक्त है" ऐसी सम्यक् श्रद्धा एवं ज्ञान के साथ आत्म-स्वभाव में स्थिरता रमणता, तन्मयता प्राप्त हुई हो, उसे ही आत्म-स्वभाव की आनन्दानुभूति होती है । उन्हें ही “सम्म सामायिक" होती है।" योग की सातवीं एवं आठवीं दृष्टि से प्राप्त होने वाले समस्त गुण इस सामायिक का स्वरूप स्पष्ट रूप से समझाने में सहायक होते हैं, तथा ध्यान की परम प्रीति, तत्वप्रतिपत्ति, शमयुक्तता, समाधिनिष्ठता, असंगअनुष्ठान, आसंग आदि दोषों का अभाव, चन्दन-गंध सदृश सात्मीकृत प्रवृत्ति, निरतिचारता आदि सद्गुण भी इस भूमिका में अवश्य प्राप्त होते हैं। ज्ञानसुधा के सागर तुल्य, परब्रह्म शुद्ध ज्योतिस्वरूप आत्म-स्वभाव में मग्न बने हुए मुनि को अन्य समस्त रूप-रस आदि पौद्गलिक विषयों की प्रवृत्ति विषतुल्य भयंकर एवं अनर्थकारी प्रतीत होती है। अन्तरंग सुख, का रसास्वादन करने के पश्चात् बाह्य-सुख, सिद्धि एवं ख्याति की समस्त प्रवृत्तियों के प्रति उदासीनता हो जाती है। विश्व के समस्त चराचर पदार्थों का जो स्याद्वाद दृष्टि से अवलोकन करता है ऐसे आत्मस्वभावमग्न मुनि को किसी को किसी भी पदार्थ का कर्तृत्व नहीं होता, केवल साक्षी भाव रहता है; अर्थात् तटस्थता से वह समस्त तत्त्वों का ज्ञाता होता है, परन्तु कर्ता होने का अभिमान नहीं कर सकता। समस्त द्रव्य स्व-स्व परिणाम के कर्ता हैं, परन्परिणाम का कोई कर्त्ता नहीं है। इस भाव के द्वारा समस्त भावों का कर्तृत्व हटाकर साक्षी भाव रखने का अभ्यास किया जा सकता है। इस सामायिक वाले साधु के चारित्र पर्याय की ज्यों-ज्यों वृद्धि होती जाती है, त्यों-त्यों उसके चित्त सुख (तेजोलेश्या) में वृद्धि होती जाती है । बारह महीनों के पर्यायवाले मुनि के सुख की तुलना अनुत्तरवासी देवों के सुख के साथ भी नहीं हो सकती; अर्थात् उनकी अपेक्षा भी मुनि का समता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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