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इस प्रकार सम सामायिक और समता की एकता ज्ञात होती है । तुल्य परिणाम रूप समता श्रु तज्ञान एवं ध्यान के सतत अभ्यास से प्रकट होती है; अर्थात् समता श्रु तज्ञान एवं शुभ ध्यान का फल है ।
“योगबिन्दु" में ध्यान का फल बताते हुए कहा गया है कि-"चित्त की सर्वत्र स्वाधीनता, भाव (परिणाम) की स्थिरता और कर्म के अनुबन्ध का विच्छेद ध्यानयोग का फल है।"
श्र तज्ञान के अभ्यास से चित्त-वृत्तियाँ जब स्थिर बनती हैं, तब ध्यान का प्रारम्भ होता है और उस ध्यान के सतत अभ्यास के पश्चात् चित्त स्वाधीन बनता है; अर्थात् चित्त साधक की इच्छा का अनुसरण करता है । मन की स्वाधीनता सिद्ध होने से आत्म-परिणाम विशुद्ध बनते हैं, सात्विक एवं उत्तम विचारों के प्रवाह से निम्न कोटि के विचारों का प्रवेश रुक जाता है; जिससे अशुभ कर्मों का बन्ध नहीं हो सकता।
___ मन की स्वाधीनता से अनेक प्रकार की लब्धियाँ एवं सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, फिर भी योगी पुरुष उस ओर समता, मध्यस्थता और उदासीनता ही रखते हैं । शत्रु अथवा मित्र, राजा अथवा रंक, ग्राम अथवा नगर, तृण अथवा मणि में सर्वत्र तुल्य वृत्ति रखना ही समता है। कोई निन्दा करे अथवा प्रशंसा करे, कभी इष्ट संयोग प्राप्त हो अथवा कभी अनिष्ट संयोग प्राप्त हो तो भी सम्यग्ज्ञान के बल से "समताभाव" रखा जा सकता है क्योंकि यह श्रु तज्ञान का फल है। सम सामायिक का महत्व
समता समस्त गुणों में सर्वोपरि है। उसका सर्वाधिक महत्व बताते हुए कहा है कि समता विहीन ज्ञान, ध्यान, तप, शील और सम्यक्त्व आदि गुण अपना वास्तविक फल देने में विफल सिद्ध होते हैं। समतावान् साधु जो गुणों का विकास एवं गुणस्थानक की उत्तरोत्तर भूमिका प्राप्त कर सकता है, वह ज्ञान आदि गुणों वाला समता विहीन व्यक्ति नहीं प्राप्त कर सकता।
__ जो समतावान् साधक समस्त जीवों (त्रस-स्थावर) के प्रति सम परिणाम वाला होता है, उसे ही सर्वज्ञ-कथित यह सामायिक होती है। (३) सम्म (सम्यक्) सामायिक का स्वरूप
सम्यक् परिणामस्वरूप इस सामायिक में सम्यक्त्व, ज्ञान एवं चारित्र का परस्पर सम्मिलन होता है । जिस प्रकार दूध में शक्कर मिल जाती है,
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