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________________ समापत्ति और कायोत्सर्ग १५६ की श्रेणी प्राप्त होती है और उपयोगपूर्वक पिरोये जाते मोतियों की व्यवस्थित एवं सुन्दर माला तैयार होती हैं । (५) अनुप्रेक्षा - तत्वार्थ का चिन्तन-मनन- परिशीलन करना, आत्त तत्व आदि का पुनः पुनः विचार करना उसे अनुप्रेक्षा कहते हैं । यह अनुप्रेक्षा भी ज्ञानावरणीयकर्म का क्षयोपशमजनित आत्म-परिणाम है । अनुप्रेक्षा का कार्य यह अभ्यास विशेष से आत्म-तत्व की अनुभूति कराती है, परम संवेग उत्पन्न करती है, संवेग मोक्ष की तीव्र अभिलाषा को सुदृढ़ करती है, उत्तरोत्तर विशेष श्रद्धा उत्पन्न करती है और क्रमशः केवलज्ञान के सम्मुख ले जाती है । जिस प्रकार रत्नशोधक अग्नि रत्न के चारों ओर फैलकर उसकी मलिनता को जलाकर रत्न को शुद्ध करती है, उसी प्रकार से अनुप्रेक्षा रूपी अग्नि आत्मा में फैल कर कर्म - पल को जला कर निर्मल केवलज्ञान उत्पन्न करती है, अर्थात् अनुप्रेक्षा एक प्रचण्ड ध्यान शक्ति है । इस प्रकार श्रद्धा आदि पांचों का स्वरूप बताकर उसके फल का प्रतिपादन करते हुए ग्रन्थकार महोदय श्रद्धा आदि में निहित शक्तियों का परिचय देते हैं । महासमाधि के बीज - श्रद्धा, मेधा, धृति, धारणा और अनुप्रेक्षापूर्वक करणरूप महासमाधि के बीज ( उपादान कारण) हैं, क्योंकि श्रद्धा आदि की उत्तरोत्तर वृद्धि होने पर जब उनकी परिपक्वता अतिशय हो जाती है तब अपूर्वकरणरूप समाधि प्रकट होती है । परिपाचना (श्रद्धा आदि पाँचों की परिपक्वता ) कुतर्कजनित मिथ्या विकल्पों का त्याग करके सत्शास्त्रों को श्रवण, पठन, अर्थ- प्रतीति और शास्त्रोक्त अनुष्ठान करने की तीव्र इच्छा तथा बार-बार तदनुसार प्रवृत्ति करने से श्रद्धा आदि पाँचों की परिपक्वता होती है । परिपाचना का अतिशय - जब शास्त्रोक्त सदनुष्ठान की प्रवृत्ति में स्थिरता आने पर उसकी सिद्धि होती है तब प्रधान परोपकार में हेतुभूत श्रद्धा आदि की " अतिशय " परिपक्वता सिद्ध होती है । अर्थात् उक्त परिपक्वता की अत्यन्त वृद्धि होती है और अपूर्वकरणरूप महासमाधि को उत्पन्न करती है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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