________________
.१५८ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म .. (१) श्रद्धा-निज आत्माभिलाषा रुचिरूप है।
मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न चित्त की प्रसन्नता ही श्रद्धा है (अर्थात् चित्त की प्रसन्नता रूप आत्मिक परिणाम)।
श्रद्धा का कार्य-इस प्रकार की श्रद्धा जीव आदि तत्वों का अनुकरण करती है अतः वह सत्य है यह प्रतीति कराती है।
संशय, भ्रम, विपर्यय अथवा अनध्यवसाय (समारोप) को दूर करती है।
शुभ-अशुभ कर्म, उनका फल, आत्मा के साथ कर्मों के सम्बन्ध आदि की वास्तविकता का ठोस विश्वास उत्पन्न करती है।
उदक प्रसादक मणि की तरह चित्त की मलिनता दूर करती है।
(२) मेधा (बुद्धि)-गहन ग्रन्थों का रहस्य ग्रहण करने में समर्थ आत्म-परिणाम को मेधा कहते हैं। यह ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न आत्मधर्म (गुण) है।
मेधा का कार्य-सत्शास्त्र के श्रवण आदि की प्रवृत्ति कराने वाली तथा मिथ्यात्व-पोषक शास्त्र के श्रवण से निवृत्ति कराने वाली मेधा गुरु की विनय आदि से प्राप्त होती है। मेधा प्राप्त होने से सद्ग्रन्थों (मोक्षमार्ग प्रकाशक) के प्रति परम उपादेय भाव (यही हितकारी है यह भाव) उत्पन्न होता है।
(३) धृति-(मन प्रणिधान) चित्त की एकाग्रता विशिष्ट प्रीति तन्मयतारूप है। यह धुति चारित्रमोहनीय कर्म के क्षयोपशम से जनित है; दीनता, उत्सुकता हित, धीर, गम्भीर आशय स्वरूप है। निर्धन व्यक्ति को जिस प्रकार चिन्तामणि रत्न की प्राप्ति होने से दुःख दूर होने के कारण निर्भयता-निराकुलता आती है, उसी प्रकार से अपूर्व चिन्तामणि तुल्य जिनधर्म प्राप्त होने पर संसार का भय दूर होने से धृति प्रकट होती है।
(४) धारणा-प्रस्तुत ध्येय पदार्थ का अविस्मरण--उपयोग की स्थिरता ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम जनित वित्त का परिणाम है। यह अविच्युति (सतत उपयोग), वासना (संस्कार) और स्मृति (स्मरण) । रूप भेद वाली है।
धारणा के द्वारा प्रस्तुत ध्येय-विषय का क्रम पूर्वक सतत स्मरण रहता है, जिससे स्थानादि योग में प्रवृत्त साधक को योग, ध्यान आदि गुणों
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org