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सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म
इस प्रकार श्रद्धा आदि पांचों के द्वारा समाधि अथवा समापत्ति सिद्ध होती है।
(१) श्रद्धा एवं मेधा से चित्त की निर्मलता प्रकट होती है। (२) धुति एवं धारणा से वित्त की स्थिरता प्रकट होती है।
(३) अनुप्रेक्षा की अतिशय-परिपक्वता के द्वारा तन्मयता प्रकट होती है तब “समापत्ति" सिद्ध होती है।
ध्याता, ध्येय और ध्यान की एकतारूप "समापत्ति' का पुनः पुनः अभ्यास होने से अपूर्वकरणरूप (सपापत्ति) महासमाधि प्रकट होती हैं। कायोत्सर्ग एवं समाधि की एकता
इससे समझा जा सकता है कि श्रद्धा आदि पाँच जो कायोत्सर्ग के प्रकृष्ट साधनों के रूप में जाने जाते हैं वे श्रद्धा आदि समुच्चय ध्यान और समाधि के भी प्रधान साधन हैं, अतः कायोत्सर्ग समाधि स्वरूप ही है।
जिस वस्तु के बीज (कारण) समान हों, उनके फल भी समान ही होते हैं। सदनुष्ठानों का फल समाधि (समापत्ति)- यहाँ कायोत्सर्ग अथवा समाधि के प्रकृष्ट साधनों (हेतु) के रूप में जिस प्रकार श्रद्धा आदि का निर्देश दिया जाता है, उसी प्रकार से श्रद्धा आदि के साधनों के रूप में मिथ्याविकल्प के त्याग, शास्त्रश्रवण, प्रतीति, इच्छा योग और प्रवृत्ति योग आदि का भी निर्देश हुआ है। इसका रहस्य सरलता से समझ में आ सकता है कि शास्त्र-श्रवण, गुरु-विनय, जिन-दर्शन, पूजन, यम-नियम के पालन से श्रद्धा आदि की परिपक्वता की वृद्धि होतो है और सदनुष्ठानों को निरन्तर करने से उनमें स्थिरता आने पर और उनमें सिद्धि प्राप्त होने पर श्रद्धा आदि की वृद्धि से अतिशय वेग आता है; अर्थात् श्रद्धा, मेधा, धति एवं धारणा की अतिशय प्रबलता होने से अनूप्रेक्षारूप ध्यान अतिशय प्रबल होता है और तेलधारावत् अविच्छिन्न गति से चलता ध्यान-प्रवाह किसी से भी रोका नहीं जा सकता। अतः उसे अनाहत समतायोग भी कहते हैं।
इस प्रकार जब ध्यान अत्यन्त वीर्य (वेग) युक्त होता है तब अपूर्वकरणरूप महासमाधि प्रकट होती है। (इससे पूर्व हुई सदनुष्ठान की साधना और उससे प्रकट होते श्रद्धा आदि गुण “चरम यथाप्रवृत्तिकरण" के योग शक्तियों का संचय करते थे. क्योंकि उनकी प्रकृष्ट विशुद्धि से ही "अपूर्वकरण" रूप महासमाधि प्रकट हो सकती है।)
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