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________________ ४. समापत्ति और कायोत्सर्ग जैनदर्शन में " कायोत्सर्ग" को आवश्यक नित्य कर्तव्य के रूप में विशेष महत्व दिया गया है। इसका कारण क्या होगा ? यदि इस पर शास्त्र सापेक्ष चिन्तन अनुभवपूर्वक किया जाये तो उसका गम्भीर रहस्य अवश्य समझने को मिलेगा । यद्यपि इसका सम्पूर्ण रहस्य तो दिव्य, ज्ञानी पुरुष ही जान सकते हैं और अनुभव कर सकते हैं । " षड् आवश्यक" में कायोत्सर्ग पाँचवाँ आवश्यक हैं । साधु साध्वी, श्रावक एवं श्राविका रूप चतुविध संघ समस्त को नित्य, नियमित अवश्य करने योग्य होने से इन्हें "आवश्यक" कहा जाता है । चतुर्विध संघ के संस्थापक समस्त तीर्थंकर भगवान भी दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् जब तक केवलज्ञान नहीं होता, तब तक प्रायः कायोत्सर्ग अवस्था में रहकर निरन्तर ध्यान करते है और मुक्ति भी प्रायः कायोत्सर्ग अवस्था में ही प्राप्त करते हैं । इसी प्रकार से उनके शिष्य - गणधर भगवान, पूर्वधर एवं अन्य लब्धिधारी मुनि भी कठिन कर्म-काष्ठ को भस्म करने के लिये सदा " कायोत्सर्ग" का आलम्बन ही लेते हैं। इससे भी समझा जा सकता है कि जैनदर्शन में " कायोत्सर्ग" का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है । " कायोत्सर्ग" अभ्यन्तर (आन्तरिक) तप है । इसमें भी इसका स्थान ध्यान के पश्चात अन्तिम है । अतः प्रायश्चित्त, विनय, वैयावच्च, स्वाध्याय एवं ध्यान की अपेक्षा भी "कायोत्सर्ग" का सामर्थ्य विशेष है । कायोत्सर्ग में प्रायश्चित्त आदि पाँचों की सम्मिलित शक्ति का संचय है । इस कारण कायोत्सर्ग के द्वारा सर्वाधिक कर्मों की निर्जरा होती है और अत्यन्त आत्मविशुद्धि प्रकट होती है । कायोत्सर्ग आत्मा और परमात्मा के मध्य का अन्तर मिटाकर परमात्मा के साथ तन्मय करता है, अतः वह समापत्ति स्वरूप है । ध्यान का फल समाधि है । कायोत्सर्ग भी ध्यान फल होने से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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