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________________ १५४ सर्वज्ञ कथित : परम सामायिक धर्म परमात्म समापत्ति निमित्त स्वरूप होने से अपवाद भाव सेवा रूप है। उसके योग से आत्मा की उपादान शक्ति-सम्यग् दर्शन आदि प्रकट होती है । वह उत्सर्ग भाव सेवा है। सात नयों की अपेक्षा से बृहत्कल्पभाष्य के आधार से श्रीमद् देवचन्द्र जी कृत श्री चन्द्रप्रभ जिन स्तवन में भाव सेवा के स्वरूप निम्न प्रकार से हैं (१) नैगमनय से-अपवाद भावसेवा अथवा समापत्ति-जिनगुण का संकल्प-चिन्तन । (२) संग्रहनय से-अपवाद भावसेवा अथवा समापत्ति-भेद-अभेद के विकल्प से परमात्मा के साथ आत्मसत्ता की तुल्यता का विचार । (३) व्यवहारनय से-अपवाद भावसेवा अथवा समापत्ति-सम्मान पूर्वक-सम्यग्ज्ञानयुक्त च चारित्र के द्वारा जिनगुणों में रमणता। (४) ऋजुसूत्रनय से-अपवाद भावसेवा अथवा समापत्ति-प्रभुगुण के आलम्बन से पदस्थ आदि धर्मध्यान । (५) शब्दनय से-अपवाद भावसेवा अथवा समापत्ति-शुक्लध्यान में चढ़ना, (प्रथम नींव) और आत्मस्वरूप में तन्मय होकर परमात्मचिन्तन । (६) समभिरूढ़नय से--अपवाद भावसेवा अथवा समापत्ति-दसवें सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानक से होता शुद्ध ध्यान। (७) एवंभूतनय से-अपवाद भावसेवा अथवा समापत्ति-बारहवें क्षीणमोह गुणस्थानक से प्रकट होते शुक्लध्यान का द्वितीय भेद । ___इस प्रकार नयभेद से- भावसेवा के स्वरूप का विचार करने पर समापत्ति का स्वरूप भी सात नयों के विभाग से स्पष्ट समझा जा सकता हैं। उससे प्रकट होती. आत्म-शुद्धता का तारतम्य उत्सर्ग भाव सेवा के स्वरूप से ज्ञात हो सकेगा। सामान्य से दीप्रादृष्टियुक्त अपुनर्बन्धक, सम्यग्दृष्टि, देशविरति, प्रमत्तयति और अप्रमत्तयति को क्रमशः नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र नय की समापत्ति (धर्मध्यानस्वरूप) सम्भव हो सकती है। शेष समापत्ति शुक्ल ध्यान में ही होती है। 00 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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