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समापत्ति एवं गुणश्रेणी १५१
अथवा तो परमात्म-प्रभु का ध्यान हो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूप है, अर्थात् ध्यान की निर्मलता रूप सम्यग्दर्शन ध्यान की स्थिरता रूप सम्यग्ज्ञान और तन्मयता रूप चारित्र की ज्यों-ज्यों वृद्धि होती है त्यों-त्यों अधिकाधिक कर्मनिर्जरा होती है ।
जब ध्याता पूर्णतः ध्येय रूप में हो जाता है तब समस्त कर्मों का क्षय होने पर मुक्ति प्राप्त होती है ।
भावधर्म और समापत्ति
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अनन्त उपकारी श्री तीर्थंकर परमात्मा ने ( दान, शील, तप और भाव के भेद से ) धर्म के चार भेद बताये हैं । उनमें भाव-धर्म प्रधान है । इसके बिना दान आदि तीन धर्म मोक्ष साधक नहीं बनते ।
भाव मन में उत्पन्न होता है और मन अत्यन्त चंचल स्वभावी होने से आलम्बन के बिना स्थिर नहीं रहता । इस कारण ही जिनेश्वर भगवान सालम्बन और निरालम्बन रूप ध्यान के दो भेद बताये हैं ।
निरालम्बन ध्यान आलम्बन ध्यान के बिना सिद्ध नहीं होता, अतः सालम्बन ध्यान को सिद्ध करने के लिये असंख्य आलम्बन (योग) बताये हैं, जिनमें अरिहन्त आदि नौ पद मुख्य आलम्बन हैं ।
अरिहन्त आदि का द्रव्य-गुण- पर्याय के द्वारा ध्यान करने से ध्याता जब अपनी आत्मा को निर्मल कर के क्रमशः अरिहन्त आदि के स्वरूप में स्थिर होकर तन्मय हो जाता है, तब ध्याता, ध्येय और ध्यान का भेद नहीं रहता, परन्तु एक ही ध्येयाकार में तन्मय बनो आत्मा का हो ( अनुभव) शुद्ध उपयोग रहता है, तब आत्मा का शुद्ध उपयोग स्वरूप भावधर्म उत्पन्न होता है । निश्चय दृष्टि से वह ' शुद्ध उपयोग हो भावधर्म है । आगम से भाव निक्षेप भी शुद्ध उपयोग वाले ज्ञाता को भाव-धर्म के रूप में स्वीकार करता हैं, तथा योगशास्त्र में निर्दिष्ट समापत्ति ध्याता, ध्येय धौर ध्यान की एकता रूप होने से शुद्ध धर्म को उत्पन्न करती है । अतः (व्यवहार की अपेक्षा से) वह समापत्ति भी भावधर्म है । (यहाँ कारण में कार्य का उपचार हुआ है ।)
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वत्थु सहावो धम्मो ।
२ शिरोदक समो भाव आत्मन्येन व्यवस्थितः ।
( योगबिन्दु ३४६ )
वृत्तिः भाव: शुद्ध परिणामरूपः आत्मन्येव-जीव एव सम्यग्दृष्ट्यादौ व्यवस्थितः ।
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