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________________ सर्वज्ञ कथित: परम सामायिक धर्म श्री " सिरिवाल कहा" में निश्चयदृष्टि से नौ पदों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है । उसके चिन्तन, मनन से " समापत्ति" का स्वरूप स्पष्ट समझा जा सकता है । १५२ एया राहणमूलं च पाणिणो केवलो सुहो भावो । सो होइ धुवं जीवाण, निम्मलप्पाण नन्नेसिं ॥ इन नौ पदों की आराधना का मूल केवल प्राणियों का शुभ भाव है और उक्त शुभ भाव निर्मल आत्माओं में ही होता है, अन्य जीवों में नहीं हो सकता । जो संकल्प विकल रहित निर्मल आत्मा हैं, वे ही नौ पद हैं और नौ पदों में निर्मल आत्मा है । रूपस्थ, पदस्थ एवं पिण्डस्थ रूप से अरिहन्त का ध्यान करता ध्याता स्वयं को भी प्रत्यक्ष रूप से अरिहन्त के रूप में देखता है । उसी प्रकार से सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप पद का ध्यान करने वाला ध्याता जब ध्येय स्वरूप में तन्मय हो जाता है तब वह अपनी आत्मा को भी सिद्ध, आचार्य आदि के रूप में ही देखता है । आगम से भाव निक्षेप उस आत्मा को ही अरिहन्त आदि मय कहते हैं । अतः वह निर्मल आत्मा ही नौ पद मय है और नौ पद भी भाव रूप में निर्मल आत्मा में ही हैं, यह स्पष्ट समझा जा सकता है । इस प्रकार आत्मा को ही नौ पदमय देखने से उस क्षण में पर्याप्त कर्मों का क्षय हो जाता है, जो करोड़ों जन्मों के तीव्र तप से भी सम्भव नहीं है । इस प्रकार आत्मा को नौ पदमय जानकर आत्मा में ही सदा लीन ( मग्न) होना चाहिये । स्फटिक रत्न तुल्य निर्मल आत्म-स्वभाव ही "भावधर्म" है, इस प्रकार श्री जिनेश्वर भगवन्त ने कहा है । निश्चय से राग-द्वेष रहित शुद्ध आत्म-स्वभाव को ही धर्म कहा जाता है । जे जे अंशे रे, निरुपाधिकपणुं, ते ते जाणो रे धर्म । सम्यग्दृष्टि रे गुणठाणाथकी जाव लहे शिव शर्म ॥ निश्चय से जितने अंश में उपाधिरहितता प्रकट हुई हो अर्थात् आत्म-विशुद्धि प्रकट हुई हो उतने अंशों में शुद्ध धर्म प्राप्त हुआ कहा जाता है और वह धर्म सम्यग्दृष्टि (चतुर्थ) गुणस्थानक से लगाकर मोक्ष सुख प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर विशुद्ध होता जाता है; अर्थात् मोक्ष में पूर्ण शुद्ध आत्म स्वभाव प्रकट होता है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003696
Book TitleSarvagna Kathit Param Samayik Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalapurnsuri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1986
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size8 MB
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