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सर्वज्ञ कथित: परम सामायिक धर्म
अध्यवसाय (आत्मपरिणाम) की अपूर्व निर्मलता, स्थिरता होने से आत्मस्वरूप में तन्मय होने पर अपूर्व वीर्योल्लास जागृत होता है, तब "अपूर्वकरण रूप समापत्ति 1 सिद्ध होती है ।
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जिस अपूर्वकरण के विशुद्ध परिणाम से राग-द्वेष की निविड़, घन, कर्कश और गुप्त ग्रन्थियों का भी भेदन हो जाता है, वह अपूर्वकरण भी ध्यान विशेष (समापत्ति विशेष ) है ।
अपूर्वकरण के पश्चात् भी प्रबल ध्यान आदि के कारण पूर्व की अपेक्षा अधिक चित्त निर्मलता, स्थिरता एवं तन्मयता सिद्ध होती है तब " अनिवृत्तिकरण" की शक्ति प्रकट होती है । उक्त अनिवृत्तिकरण (रूप समापत्ति) के द्वारा प्रथम गुणश्रेणी (की रचना) करता है और सम्यग् दर्शन की प्राप्ति होती है । इस प्रकार उत्तरोत्तर भूमिका योग्य धर्म अनुष्ठान के निरन्तर सेवन से जब प्रबल ध्यान-शक्ति प्रकट होती है, तब उस प्रकार की समापत्ति-समाधि प्राप्त होती है कि जिससे देशविरति आदि गुणश्रेणी सिद्ध हो सकती है । प्रत्येक गुणश्रेणी का समय अतमुहूर्त ही है और स्थिर ध्यान का काल भी अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है । फिर विषयान्तर का आलम्बन अवश्य लेना पड़ता है, जिससे फलित होता है कि ध्यान की निर्मलता, स्थिरता एवं तन्मयता के द्वारा गुणश्रेणी की रचना होती है । ज्यों-ज्यों चित्त की निर्मलता, स्थिरता और तन्मयता की वृद्धि होती है, त्यों-त्यों वह आत्मा उत्तरोत्तर गुणश्रेणी रचना के द्वारा असंख्यगुण, कर्मनिर्जरा एवं उत्तरोत्तर विशेष विशुद्धि प्रकट करती है ।
इस प्रकार ध्यान की निर्मलता, स्थिरता और तन्मयता से समापत्ति ( सामायिक अथवा समाधि) सिद्ध होती है और उससे गुणश्रेणी की रचना होती है और उससे क्रमश: असंख्य गुनी कर्म- निर्जरा होने पर असंख्यगुनी आत्म-विशुद्धि प्राप्त होती है और अयोगी अवस्था के अन्त में मुक्ति प्राप्त होती है ।
१ एतानि श्रद्धादिनि अपूर्वकरण महासमाधि बीजानि ।
तत्परिपाकातिशयतस्तत्सिद्धेः ॥
ये श्रद्धा, मेधा, धृति, धारणा एवं अनुप्रेक्षा- अपूर्वकरणरूप महासमाधि के बीज हैं, क्योंकि श्रद्धा आदि की परिपक्वता से ही उसकी सिद्धि होती है ।
( ललितविस्तरा चैत्यस्तव )
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